
जब लाल किले पर तिरंगा फहराने से पहले करीबियों ने कर दी थी बगावत, निराश हो चुकी थीं इंदिरा गांधी
नई दिल्ली, 15 अगस्त। यह बात 1969 की है, जब तीन मई को तत्कालीन राष्ट्रपति जाकिर हुसैन की हार्ट अटैक से मौत हो गई थी और उप राष्ट्रपति वीवी गिरी को कार्यवाहक राष्ट्रपति बनाया गया था। अगले ही महीने यानी अगस्त में 16 तारीख को देश के पांचवें राष्ट्रपति के लिए चुनाव होना तय था। इस चुनाव में वीवी गिरी ने इस्तीफा देकर निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ा था। दूसरी तरफ उनके खिलाफ थे कांग्रेस पार्टी के औपचारिक और अधिकृत उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी।
अपनों ने ही कर दिया था विद्रोह
जब ये चुनाव हो रहे थे, तब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अपनी ही पार्टी के नेताओं के बड़े और दिग्गज नेताओं के निशाने पर थीं। उनके खिलाफ तब मोरारजी देसाई, के कामराज, एस के पाटिल, अतुल्य घोष और पार्टी अध्यक्ष निजलिंगप्पा भी थे। इन लोगों ने तब नीलम संजीव रेड्डी को बतौर कांग्रेस उम्मीदवार खड़ा किया था, लेकिन इंदिरा गांधी निर्दलीय उम्मीदवार वीवी गिरी को राष्ट्रपति बनाना चाहती थीं। कांग्रेस के अंदर दो धड़े बंट चुके थे। एक मोरारजी देसाई और कामराज के नेतृत्व में तो दूसरा गुट इंदिरा गांधी के नेतृत्व में काम कर रहा था।
इंदिरा के विरोध में जनसंघ भी दे रहा था साथ
कांग्रेस के उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी को तब विपक्षी जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी ने भी अपना समर्थन दे दिया था। ऐसी स्थिति में इंदिरा निराश होने लगी थीं। उन्हें इस बात का डर था कि उनके समर्थित उम्मीदवार वीवी गिरी की हार हो सकती है। हालांकि, कांग्रेस के कुछ कद्दावर नेता इंदिरा के साथ थे। उनमें मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री डीके मिश्र भी शामिल थे।
इंदिरा ने कहा था – अब पद छोड़ना होगा
16 अगस्त को चुनाव होना था। उससे पहले 15 अगस्त को देश आजादी के जश्न में डूबा हुआ था, लेकिन 14 अगस्त से ही कांग्रेस के अंदर हलचलें तेज हो गई थीं। बैठकों का सिलसिला जारी था। 20 अगस्त (राजीव गांधी के जन्मदिन) को राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे आने वाले थे। इंदिरा को उनके लोगों ने बताया था कि गिरी चुनाव हार रहे हैं। पुपुल जयकर ने अपनी किताब ‘इंदिरा गांधी- अ बायोग्राफी’ में लिखा है कि गिरी की हार की आशंकाओं से घबराकर तब इंदिरा गांधी ने कहा था कि अब मुझे पद छोड़ना होगा।
तारकेश्वरी देवी ने इंदिरा पर बोला था हमला
जयकर ने लिखा है कि 14 अगस्त, 1969 को उनकी इंदिरा गांधी से तब मुलाकात हुई थी, जब वह स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर कांग्रेस कार्यसमिति की बोझिल और मैराथन बैठक से बाहर निकल रही थीं। उसी बैठक में मोरारजी देसाई की करीबी और बिहार की नेता तारकेश्वरी देवी ने इंदिरा गांधी पर हमला बोलते हुए उनसे पीएम पद छोड़ने की मांग की थी। बैठक में इंदिरा पर पार्टी को तोड़ने और पार्टी के अंदर अनुशासन को खत्म करने समेत कई आरोप लगाए गए थे। इंदिरा तब नर्वस हो चुकी थीं और बिना कुछ कहे मीटिंग से बाहर आ गई थीं। हालांकि, उनके कई समर्थकों ने तारकेश्वरी देवी के आरोपों का खंडन किया और विरोध किया था।
लाल किले से क्या कहेंगी इंदिरा?
जयकर ने लिखा है कि ऐसी राजनीतिक परिस्थितियों में जब हमने इंदिरा गांधी से पूछा कि अगली सुबह 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से भाषण में क्या कहेंगी, तब इंदिरा ने कहा था कि उनका भाषण किसी भी राजनीतिक द्वेष या विवाद से परे होगा और अपने पिता पंडित नेहरू के आदर्शों के अनुरूप होगा। जयकर के मुताबिक, तभी रोमेश थापर (इंदिरा गांधी के करीबी और पत्रकार) वहां पहुंच गए और उन्होंने पीएम गांधी को आश्वस्त किया कि गिरी के समर्थन में 250 सांसदों ने हस्ताक्षर कर दिए हैं।
वीवी गिरी की हुई जीत
उन्होंने दावा किया था कि अब गिरी जीत जाएंगे। हालांकि, इंदिरा तब भी आश्वस्त नहीं हुई थीं और उन्होंने कहा था कि हमें चौकस रहना होगा क्योंकि विपक्षी बहुत चालाक और महत्वाकांक्षी हैं। 20 अगस्त को जब नतीजे घोषित हुए तो वीवी गिरी की जीत हुई थी। इंदिरा इस चुनाव में किसी भी हालत में ये संदेश देना चाहती थीं कि मौजूदा पार्टी से कहीं ज्यादा दमदार उनकी अपनी छवि है। वो ताकतवर नेता हैं। वो ये भी दिखाना चाहती थीं कि वह ऐसी राष्ट्रीय नेता हैं, जिन्हें पार्टी की नहीं बल्कि पार्टी को उनकी जरूरत है।
और बढ़ गई थी तनातनी
वीवी गिरी की जीत के साथ ही कांग्रेस पार्टी के अंदर तनातनी चरम पर पहुंच गई। 12 नवम्बर,1969 को इंदिरा को पार्टी से निकाल दिया गया। तब तक कई नेता उनके साथ आ चुके थे। दोनों खेमों ने अलग-अलग मीटिंग बुलाई। इंदिरा ने मुंबई में तो कांग्रेस (ओ) ने अहमदाबाद में मीटिंग बुलाई। इंदिरा का शक्ति प्रदर्शन काम कर गया। कांग्रेस कमेटी के 705 में से 446 सदस्यों ने इंदिरा का साथ दिया। दोनों सदनों में कांग्रेस के कुल 429 में से 310 सांसद इंदिरा के समर्थन में आ गए थे। इनमें लोकसभा के 220 सांसद थे। जब इंदिरा के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव आया तो बहुमत के लिए घट रहा 45 का आंकड़ा वाम दलों और निर्दलीय सांसदों ने साथ देकर पूरा कर दिया था। इस तरह इंदिरा गांधी की राह अलग हो गई।