देहरादून, 13 सितम्बर। राज्य विधानसभा के चुनाव नजदीक आते देख राजनीतिक दलों में पाला बदलने की घटनाएं तेज होने लगी हैं। दल बदल करने वालों की चाहे लाख आलोचनाएं हों , भले उनसे ताल्लुक रखने वाली पार्टी उन्हें मौकापरस्त कहे , लेकिन सच यह है कि दल-बदल में फायदा ही फायदा है। दल बदलते समय यदि मंत्री हैं तो विधायक का टिकट और सरकार बनने पर मंत्री की कुर्सी पक्की। तो ऐसे मौके का कोई क्यों फायदा नहीं उठाना चाहेगा। उत्तराखण्ड में 2017 में यह आफऱ शुरू हुआ।
हम यदि केवल उत्तराखण्ड की ही बात करें तो 2016 के सत्ता संघर्ष से उपजे विवाद में हुए दल-बदल ने इतिहास रच दिया। इतिहास इसलिए कि हरीश रावत के नेतृत्व की कांग्रेस सरकार भंग कर दी गई और राज्य में पहली बार राष्ट्रपति शासन लगाया गया। कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद रावत सरकार बहाल हुई , लेकिन इससे पहले सरकार के खिलाफ अविश्वास का प्रस्ताव लाने वाले मंत्री और विधायक उनकी पसंद की विधानसभा सीट से टिकट और सरकार बनने पर मंत्री पद के भरोसे के साथ भाजपा में शामिल हो गए थे।
2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने दल बदल करने वालों को उनकी पसंद की सीट से टिकट देकर चुनाव लड़ाया और अधिकांश को मंत्री भी बनाया। एक नही कई ऐसे उदाहरण हैं जो इस बात की तस्दीक करते हैं कि दल बदल की चातुर्यता से कई चेहरे 2012 से निरन्तर मंत्री हैं।
उत्तराखण्ड में दल बदल करने वालों में समूह में आये लोग हों अथवा अकेले आने वाले हों , 2017 में भाजपा की त्रिवेंद्र सरकार में मंत्री पद मिला। भाजपा में धामी तीसरे मुख़्यमंत्री हैं लेकिन दल बदल करने वालों की कुर्सी सलामत भी है और पहले की तुलना में अधिक वजनी भी।
विधायको में धनोल्टी से निर्दलीय विधायक प्रीतम सिंह पंवार से एक बार विधानसभा चुनाव से पहले दल बदल की शुरूआत हो चुकी है। आने वाले दिनों में दल बदल की घटनाएं बढ़ सकती हैं। चूंकि भाजपा की तरफ से आ रही खबरों में कहा जा रहा कि कई सीटिंग विधायकों के टिकट कट सकते हैं। यदि ऐसा होता है तो टिकट के लिए कांग्रेस की तरफ दौड़ लगाते कई लोग दिखाई दे सकते हैं।