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डॉ. आंबेडकर की पुस्तक “थोट्स ऑन पाकिस्तान” : विभाजन के बाद हिंदु बहुल भारत में मुस्लिम सांप्रदायिकता पर अंकुश लगने का था भरोसा?

डॉ. आंबेडकर की पुस्तक “थोट्स ऑन पाकिस्तान” : विभाजन के बाद हिंदु बहुल भारत में मुस्लिम सांप्रदायिकता पर अंकुश लगने का था भरोसा?

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  • आनंद शुक्ल

आंदोलन आदर्शो के पाने केलिए संपूर्ण शक्ति लगा के होते है. लेकिन बाद में निर्णयो को आदर्शो के भावावेश में बिना बहे सामे पेदा हुई स्थितिओं के तहत वास्तविकता के धरातल पर लेने चाहिए. स्वतंत्रता आंदोलन के समय भारत के पास ऐसे दो वास्तविकता के आधार पर भावनाओं से परे रहकर सोचनेवाले ओर निर्णय लेने वाले नेता थे. उस में लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल और स्वतंत्र भारत के संविधान निर्माता डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर सामिल है. भारत के सेक्युलर ढांचे को संरक्षित करनेवाले संविधान के निर्माता डॉ. आंबेडकरने अपनी पुस्तक थोट्स ऑन पाकिस्तान में भारत विभाजन के बारे में अपने विचारो को बेहद स्पष्टतापूर्ण तरीके से अभिव्यक्त किया है. यह वैचारिक स्पष्टताएं जय भीम-जय मीम की राजनीति के सपनें देखने वालो की विचारधारा के मूल में जो खोखलापन है, उसे भी लोगों के सामने लाती है. थोट्स ओन पाकिस्तान के विभिन्न संस्करण है, और उसे पढने के बाद जय भीम-जय मीम की राजनीति डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की वैचारिक प्रतिबद्धताओं के साथ गद्दारी जैसी लगने लगेंगी. सच्चा आंबेडकरवादी कभी जय भीम-जय मीम की राजनीति की तरफ जा हीं नहीं शकता.

“ स्वतंत्र भारत के संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर के विभाजन को लेकर जो विचार थे, वे महात्मा गांधी से भिन्न थे. आंबेडकरने तत्कालिन हिंदु व मुस्लिम समुदायो में पेदा हुए राजनीतिक विद्वेष की बात को किसी भी शाब्दिक आंडबर के बगैर स्पष्टतापूर्वक की थी. हिंदुओं औऱ मुस्लिमों के बीच मात्र अंतर नहीं, शत्रुता है. दोनों के बीच अंतर का कारण भौतिक नहीं. उसका स्वरूप आध्यात्मिक है. उसके मूलभूत कारण की उत्पति ऐतिहासिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक विद्वेष के गर्भ में से हुई है. राजनीतिक विद्वेष की उसकी अभिव्यक्ति मात्र है.” – डॉ. आंबेडकर (थॉट्स ऑन पाकिस्तान, पृ. क्रमांक-311)

डॉ. आंबेडकरने अखंद भारत की स्वतंत्रता की संभावनाओं औऱ उसकी मनसा को लेकर कुछ अति गंभीर आशंकाओं को प्रगट किया था. अखंड भारत का विचार दक्षिणपंथी संगठनों की आकांक्षाओं का आज भी हिस्सा है.

“क्या अखंड भारत की स्वतंत्रता वास्तव में ऐसा आदर्श है कि जिसके लिए हमे संघर्ष करना चाहिए- यह एक विचारणीय प्रश्न है. पहेली बात, अगर भारत अविभाजीत भी रहेगा, तो उसकी एकता आंगिक नहीं होगी. भारत कहेने केलिए तो एक देश होगा, किंतू वास्तव में वह दो देश ही रहेगा- हिंदुस्तान और पाकिस्तान, एक कृत्रिम औऱ आरोपित बंधनो से जुडा देश. यह द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत के कारण होगा. द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत एकता की भावना को विकसित होने देगा नहीं. दैतवाद का विषाणु बॉडी पोलिटिक में फैलाने केलिए ऐसे उन्माद को पेदा करेगा, जो यह कृत्रिम एकता को ध्वस्त करने केलिए आखरी क्षण तक लडेगा. जो दैविक शक्ति की कृपा से भारत का एकीकृत स्वरूप बच भी जाय, तो इतना तो निश्चित है कि भारत एक रुग्ण व दुर्बल राज्य होगा. यह कृत्रिम एकता के कारण उसकी जीवंतता खतम होती जायेगी, आंतरीक संबंध निर्बल होते जायेंगे, लोगों में प्रेम और विश्वास की भावना दुर्बल होती जायेगी और उसके साथ भारत का नैतिक और भौतिक विकास धीमा पडता जायेगा.” – डॉ. आंबेडकर (थॉट्स ऑन पाकिस्तान, पृ. क्रमांक- 334-335)

मुस्लिम सांप्रदायिकता समय के साथ समाप्त होने के तर्क के साथ आंबेडकर सहमत नहीं थे. उन्हें ‘राष्ट्रवादी’ मुस्लिमो की शक्ति औऱ नियत को लेकर के आशंकाएं थी कि वह हिंदुओं व मुस्लिमों के बीच मित्रता स्थापित करने में सफल हो पायेंगे.

“मुस्लिम लीग के साथ रहेने वाले राष्ट्रवादी मुस्लिमों और सांप्रदायिक मुस्लिमों में कोई फर्क करना मुश्किल है. उसमें कोई शंका नहीं कि राष्ट्रवादी मुस्लिम कॉंग्रेस के आदर्श, लक्ष्य औऱ नीतिओं के प्रति समर्पित है. वास्तव में कॉंग्रेस में ऐसे लोग है कि जो यह मानते है कि दोनों में कोई अंतर नहीं तथा राष्ट्रवादी मुस्लिम सांप्रदायिक मुस्लिमो का अगला पडाव है. राष्ट्रवादी मुस्लिमों की सच्चाई तब सामने आ जाती है कि जब राष्ट्रवादी मुस्लिम डॉ. अंसारी द्वारा कम्युनल अवोर्ड के विरोध का इन्कार किया गया था. मुस्लिमो पर मुस्लिम लीग का इतना प्रभाव बढ गया है कि उसके मुस्लिम नेता जो मुस्लिम लीग के विरोधी थे, अब मुस्लिम लीग में सामिल होना चाहते है अथवा उससे मधुर संबंध बनाना चाहते है. जब सिकंदर हयात और बंगाल के पूर्व प्रधानमंत्री फजलुल हक के विचारों और व्यवहारों पर नजर डालते है, तो यह तथ्य सच्चाई पर विश्वास करना पडता है.” – डॉ. आंबेडकर (थॉट्स ऑन पाकिस्तान, पृ. क्रमांक-406-407)

सेक्युलर भारत के सेक्युलर संविधान के निर्माता डॉ. आंबेडकर का स्पष्टतापूर्वक मानना था कि विभाजन के साथ तबादला-ए-आबादी को भी करना पडेगा. उनका स्पष्टतापूर्वक मानना था कि अगर ऐसा नहीं होगा, तो जो समस्या के समाधान केलिए विभाजन आवश्यक लग रहा है, उसका उदेश्य कभी भी पूर्ण नहीं होगा. तबादला-ए-आबादी के बगैर हुए विभाजन बाद भी स्थिति पहेले जैसी ही रहेगी और विभाजन निरर्थक व बेईमानी होगा. भारत में तो मुस्लिम सुरक्षित रहेंगे, परंतु पाकिस्तान में हिंदुओं कि स्थिति क्यां होगी यह कहना काफी कठिन है.

“उसे अवश्य स्वीकार करना पडेगा कि पाकिस्तान बन जाने मात्र से हिंदुस्तान में सांप्रदायिक तनाव खतम होगा नहीं, पाकिस्तान अपने तरीके से अपनी जनसंख्या में एकरूपता लाने में सफल रहेगा. लेकिन भारत एक मिश्रित राज्य रहेगा. भारत में वस्ती की एकरूपता लाने केलिए आवश्यक है कि तबादला-ए-आबादी हो. पाकिस्तान से तमाम हिंदु भारत में आ जाये और भारत के तमाम मुस्लिम पाकिस्तान चले जाय. अगर यह नहीं होगा, तो पाकिस्तान बनने के बाद भी भारत में बहुसंख्यक बनाम अल्पसंखक की समस्या यथावत रहेगी, जैसी कि पहेले सै है और हिंदुस्तान के बॉडी पोलिटिक में दुर्भावना पेदा करती रहेगी. जो लोग तबादला-ए-आबादी की मजाक उडा रहे है, उन्हें तर्की, ग्रीस, बल्गेरिया में पेदा हुई अल्पसंखक समस्याओ के इतिहास को पढना चाहिए. यह देशोने जो काम किया, वह साधारण काम नहीं था. दो करोड लोगों की तबादला-ए-आबादी हुई. समस्या की जटिलता को देखते उन्होंने साहस नहीं छोडा औऱ सफलतापूर्वक यह कठिन कार्य पूर्ण किया गया, क्यूंकि उनके लिए सामुदायिक शांति अन्य समस्याओं से ज्यादा महत्वपूर्ण थी. तबादला-ए-आबादी सामुदायिक शांति केलिए एकमात्र रास्ता है. जो अपने सीमित संसाधनो के बावजूद ग्रीस, तुर्की और बल्गेरिया जैसे छोटे देश यह काम कर शके है, तो कोई कारण नहीं कि हिंदुस्तान ऐसा नहीं कर शकता.”  – डॉ. आंबेडकर (थॉट्स ऑन पाकिस्तान, पृ.क्रमांक- 102-104)

तबादला-ए-आबादी नहीं होने पर भी डॉ. आंबेडकर भारत का विभाजन चाहते थे. उन्हें विश्वास था कि विभाजन बाद भारत हिंदु बहुल होगा औऱ संसद में सदस्य के भारी बहुमत के कारण मुस्लिम सांप्रदायिकता पर अंकुश लगेगा. किंतू भारत में वोटबेंक पोलिटिक्स में मुस्लिम तुष्टिकरण केलिए देश के कुल मिलाकर सभी राजकीय पक्षो की नीतिओं के कारण सांप्रदायिकता और आतंकवाद की समस्याओं का निरंतर सामना करना पडा है. लगता है कि भारत विभाजन को स्वीकार करने के बाद तत्कालिन कॉंग्रेसी नेताओं और विशेषकर पंडित जवाहरलाल नेहरु के कल्पनावादी आदर्शवाद में दूरद्रष्टि का स्पष्ट अभाव होना दिखा दे रहा है ऐसा प्रतीत हो रहा है.

(इस आर्टिकल का गुजराती से हिंदी में अनुवाद किया गया है.)

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