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कपालेश्वर मंदिर  : जब श्राप की वजह से मोर बन गई थी मां पार्वती, इसी स्थल पर किया था तप

कपालेश्वर मंदिर : जब श्राप की वजह से मोर बन गई थी मां पार्वती, इसी स्थल पर किया था तप

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चेन्नई, 16 दिसंबर। भारत की पवित्र धरती पर अनेक महापुरुषों और ज्ञानियों ने जन्म लिया है और उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों को भक्ति एवं आस्था से परिपूर्ण किया है। चेन्नई ऐसे ही शहरों में से एक है, जहां भारत की संस्कृति और अध्यात्म का अनूठा संगम मौजूद है। चेन्नई के अलग-अलग शहरों में हिंदू देवी-देवताओं के प्राचीन मंदिर मौजूद हैं, लेकिन चेन्नई के मायलापुर में स्थित कपालेश्वर मंदिर मां पार्वती और शिव के प्रेम और तपस्या के प्रतीक हैं।

कपालेश्वर मंदिर इतना पवित्र मंदिर है कि 12 ज्योतिर्लिंगों के बाद इसे सबसे पवित्र मंदिर का दर्जा मिला है। ये मंदिर इसलिए भी खास है क्योंकि यहां चारों वेदों की पूजा की जाती है। मंदिर को वेदपुरी के नाम से भी जाना जाता है। मंदिर के इतिहास में महान ऋषि और मां पार्वती के मोर बनने की पौराणिक कथा का जिक्र किया गया है। ऋषि शुक्राचार्य को लेकर जिक्र है, उन्होंने भगवान शिव की तपस्या कर उनसे अपनी आंखों की रोशनी को दोबारा मांगा था।

दूसरी तरफ, मां पार्वती एक शाप की वजह से मोर बन गई थी। अपने श्राप से मुक्ति पाने और मूल रूप को वापस पाने के लिए, मां पार्वती ने इसी स्थल पर भगवान शिव की उपासना की थी और अपने वास्तविक रूप को पाया था। इसी वजह से मंदिर को मां पार्वती के तप और भगवान शिव के तप का प्रतीक माना जाता है।

मंदिर में भगवान शिव को कपालेश्वरर और मां पार्वती को कर्पगंबल के रूप में पूजा जाता है। मंदिर में 63 नयनारों की स्तुति रत मूर्तियां भी बनी हैं, जो शिव भक्ति को दिखाती हैं। मंदिर की सीढ़ियां उतरते ही सामने गोदावरी नदी बहती नजर आती है। इसी में प्रसिद्ध रामकुंड है। पुराणों के मुताबिक, भगवान राम ने इसी कुंड में अपने पिता राजा दशरथ का श्राद्ध किया था।

मंदिर के निर्माण की बात की जाए तो मंदिर 7वीं शताब्दी में निर्मित किया गया था, जिसे उस वक्त पल्लव वंश के राजाओं ने बनाया था। मंदिर का बनाव द्रविड़ वास्तुकला की शैली को दिखाता है, जिसमें रंग-बिरंगे रंगों से देवी-देवताओं की नृत्य करती प्रतिमाओं को उकेरा गया है, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण पुर्तगाली खोजकर्ताओं ने मंदिर को नष्ट करने की कोशिश की। मंदिर का महत्वपूर्ण हिस्सा आक्रमणकारियों ने तोड़ दिया था, लेकिन फिर लगभग 16वीं शताब्दी में विजयनगर के राजाओं ने मंदिर का निर्माण दोबारा कराया था।

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