भीमराव से डॉ आंबेडकर तक का सफर वाया गुजरात
भारतरत्न डॉ. भीमराव आंबेडकर भारत माता का ऐसा रत्न जिसने अपनी चमक कभी नहीं खोई। आजीवन संघर्ष करते रहे और निखरते रहे। बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक का उनका जीवन सफर संघर्षों के विभिन्न स्तर से गुजरा। महाराष्ट्र के महार समुदाय के एक अछूत बालक की पीड़ा युवावस्था में पढ़े लिखे बेहद संजीदा युवा भीमराव के आक्रोश में परिवर्तित होना शुरू हुई। भीमराव से डॉ. आंबेडकर तक का संघर्षमय सफर उन्होंने तय किया पर उसमें कुछ हिस्सा गुजरात का भी रहा। भीमराव का गुजरात में पढ़ाई के लिए शिष्यवृत्ती लेने से सरकारी नौकरी और राजनीतिक कार्य तक का नाता रहा। उनका गुजरात की विभिन्न घटनाओं और प्रश्नों को लेकर एक अलग ही नाता हमेशा रहा। कुछ खट्टी मीठी यादें भी जुड़ी रही।
मुंबई की एलफिंस्टन कॉलेज में जब वो शिक्षा ग्रहण कर रहे थे तो बीमारी की वजह से उनका १ साल बर्बाद हुआ था। उनके पिता के लिए शिक्षा का बोझ संभालना मुश्किल हो रहा था यह देखकर कृष्णाजी केलूसकर ने बडौदा नरेश सयाजीराव गायकवाड से विनती की। “अस्पृश्यो के सहायतार्थ स्कॉलरशिप” के तहत भीमराव को मदद करने को उन्होंने कहा। भीमराव ने महाराजा द्वारा पूछे गए प्रश्नों के संतोषजनक उत्तर दिए और महाराजा ने २५ रुपए प्रति माह की स्कॉलरशिप प्रदान की। इसी के परिणामस्वरूप भीमराव ग्रेजुएट हुए। ग्रेजुएट होने के बाद भीमराव पहली बार १९१३ में बडौदा नौकरी करने आए। तब वह अस्पृष्य उद्धारक आर्यसमाजी पंडित आत्माराम अमृतसरी के यहां रहते थे। डॉ. आंबेडकर के जीवन कार्य पर अनुसंधान करनेवाले गुजराती पत्रकार किशोर मकवाना अपने लेख “डॉ बाबासाहेब आंबेडकर संकल्प, संघर्ष और सिद्धि” में लिखते हैं कि गांधीवादी अस्पृश्य नेता मुलदास वैश्य और डॉ. आंबेडकर के अनुयायि कहे जाने वाले तुलसीदास आचार्य, वी टी परमार जैसे अनेक नेताओं की शिक्षा दीक्षा बड़ौदा के अस्पृश्य छात्रालय में आत्माराम जी के मार्गदर्शन में हुई थी। बड़ौदा के प्रगतिशील, सुधारक महाराजा सयाजीराव ने आत्माराम जी को अस्पृश्य उद्धार के लिए बड़ौदा में निमंत्रित करके ठहराया था। मूलदास वैश्य लिखते हैं कि “पंडित आत्मारामजी तथा उनकी पत्नी यशोदा मां बाप की तरह उन्हें प्यार करते थे”। आत्मारामजी अपनी जिंदगी के अंतिम क्षणों तक अस्पृष्यो में शिक्षा स्तर बढ़ाने और उनके स्वाभिमान के लिए निष्ठा से काम करते रहे। उनकी इसी प्रवृत्ति से खुश होकर महाराजा ने उन्हें “राज्यमित्र” का पुरस्कार दिया था।
बड़ौदा के महाराजा ने भीमराव की नियुक्ति बड़ौदा स्टेट के विधानसभा सदस्य के तौर पर की थी। यह जगह पेटलाद के शिवलाल जयराम के मृत्युपश्चात रिक्त थी। अछूत होने के कारण बाबासाहब के साथ कचहरी के नौकर चाकर बड़ा अपमानास्पद व्यवहार किया करते थे। बड़ौदा रियासत में उन्होंने १३ दिनों तक नौकरी की मगर जब उनका मन नहीं लगा और उसी दौरान पिता की गंभीर बीमारी का तार मिला तो वह बंबई वापस चले गए। पिताजी की मृत्यु के बाद उनकी पुनः महाराजा से मुलाकात हुई। बड़ौदा में नौकरी के दौरान हुई सारी असुविधाओ से उन्होंने महाराजा को अवगत किया किंतु सयाजीराव ने (और नियति ने) उनके लिए कुछ और सोच रखा था। महाराजा ने उन्हें वह किन विषयों पर आगे अध्ययन करना चाहते हैं यह पूछा। जब भीमराव ने समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और पब्लिक फाइनेंस की पढ़ाई में रुचि दिखाई तो महाराजा ने उन्हें अमेरिका आगे पढ़ने के लिए भेजने का निर्णय लिया। फिर एक और शिष्यवृत्ती के साथ वह पढ़ने अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी में चले गए। हालांकि इस निर्णय ने सिर्फ भीमराव का ही नहीं किंतु सारे अस्पृश्य समाज का भविष्य बदल दिया। भारत से जब वह गए तो भीमराव थे और वापस आए तब वह डॉक्टर भीमराव आंबेडकर थे। यह सिर्फ डिग्री का कमाल नहीं था उनके अंदर घटनाओं को वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखने की क्षमता विकसित हो चुकी थी। स्कॉलरशिप की शर्तों के मुताबिक वह बड़ौदा स्टेट के मुलाजिम बने पर यहां भी नियति ने अलग खेल खेला। उनका अस्पृश्य होना मानो उनकी अग्नि परीक्षा लेने वाला था। उनके साथ हुए अमानवीय व्यवहार ने उनका दिल तोड़ के रख दिया।
अपने साथ जीवन में घटित कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं को बाबासाहेब ने अपने हाथों से “वेटिंग फॉर विजा” शीर्षक से लिखी है। इस लिखावट को बाद में पीपल्स एजुकेशन सोसाइटी द्वारा प्रकाशित किया गया। उसमें डॉ. आंबेडकर इन कड़वी यादों को सजल नेत्रों से याद करते हैं। बड़ौदा में उनकी अस्पृश्यता के चलते उन्हें कहां आश्रय मिलेगा यह पशोपेश थी ऐसे में स्टेशन पर पता चला कि एक पारसी लॉज में उन्हें रहने को मिल सकेगा। डॉ. आंबेडकर लिखते हैं “…..पारसी लोगों द्वारा ठहरने की व्यवस्था होने की बात सुनकर मेरा मन खुश हो गया। पारसी जोरास्ट्रियन धर्म में माननेवाले लोग होते हैं। उनके धर्म में छुआछूत को कोई जगह नहीं है इसलिए उनके द्वारा अछूत होने का भेदभाव होने का कोई डर नहीं था”।पर उन्हें पता नहीं था कि वह कितने गलत थे। सिर्फ दो हफ्तों के भीतर ही पारसी सराय वाले को पता चल गया भीमराव अछूत है। और बाद मे जो हुआ वह भीमराव के रोंगटे खड़े करने वाला था। डॉ आंबेडकर लिखते हैं “….तभी मैंने दर्जनों गुस्से में भरे लंबे मजबूत पारसी लोगों को देखा। सबके हाथ में डंडे थे, वो मेरे कमरे की ओर आ रहे थे। वे सभी लोग मेरे कमरे में इकट्ठा हो गए और उन्होंने मेरे ऊपर सवालों की बौछार कर दी। “कौन हो तुम”।, “तुम यहां क्यों आए हो?”।, “बदमाश आदमी तुमने पारसी सराय को गंदा कर दिया”। मैं खामोश खड़ा रहा। मैं कोई उत्तर नहीं दे सका। मैं इस झूठ को ठीक नहीं कह सका। आखिरकार उन्हें दूसरे ही दिन वह सराय खाली करनी पड़ी। इन स्थितियों के चलते वह खिन्न होकर बंबई वापस लौट गए।
हालांकि डॉ. आंबेडकर को बडौदा में ऐसे अनुभव हुए किंतु उन्हें महाराजा सयाजीराव के प्रति बेहद आदर भाव था। उन्होंने अपना पीएचडी का शोधप्रबंध “द एवोल्यूशन ऑफ प्रोविंशियल फाइनेंस इन ब्रिटिश इंडिया” महाराजा को अर्पण किया था। जब महाराजा का ६ फरवरी १९३९ को निधन हुआ तो उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए बाबासाहेब ने “जनता” अखबार में लिखा “…..उनके अस्पृश्य समाज पर बहुत बड़े उपकार हैं। अस्पृश्य समाज के लिए किसी ने उनकी तरह काम नहीं किया।”…… उन्होंने सामाजिक गंदी कुरीतियों का अध्ययन कर उनके दोष दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। प्रजा के कल्याण हेतु जीतने सारे प्रयत्न उन्होंने किए उतने प्रयत्न किसी दूसरे संस्थानिको ने नहीं किये।”
बंबई जाने के बाद भी बाबासाहेब का गुजरात और गुजरातीयों से नाता बना रहा। उन्होंने अपनी पहली संस्था “बहिष्कृत हितकारिणी सभा” की स्थापना की जिसमें कई गुजराती थे। उसके अध्यक्ष डॉ. चिमनलाल सीतलवाड़ थे। पारसियो के अलावा अस्पृश्य समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले गोविंदजी परमार, सामंत नानजी मारवाड़ी, जीनाभाई मूलजी राठौड़ उसकी व्यवस्था कमेटी में थे। उनकी अस्पृश्य उद्धार मुहिम में गुजरात १९२४ से जुड़ा हुआ था।
“डॉ.आंबेडकर अने गुजरात” में श्री किशोर मकवाना लिखते हैं “१९२८ में तुलसीदास मूलदास आचार्य नामक अस्पृश्य शिक्षक ने अहमदाबाद के खानपुर विस्तार में अस्पृश्य छात्रों के लिए छात्रालय शुरू किया था जिसका उद्घाटन करने डॉ आंबेडकर आए थे। १९३१ में डॉक्टर आंबेडकर जब राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस में गए तब वहां उनके प्रभावी वक्तव्य ने उनकी अस्पृश्य उद्धारक की छवि बनाई। इसके चलते अहमदाबाद के दरियापुर विस्तार के नवयुवक मंडल ने उन्हें अहमदाबाद में आमंत्रित किया था। २८ जुलाई १९३१ को वह अहमदाबाद आए थे। उनके प्रवास के वक्त सेवानंद सेवक ने “अंत्यजोने चेतवनी” (अंत्यजो को चेतावनी) नाम का एक पैम्फलेट भी छापा था जिसमें बाबासाहेब के आगमन से लेकर विभिन्न कार्यक्रमों का ब्यौरा दिया गया था। इसके अलावा डॉ आंबेडकर २२ अक्टूबर १९३८ को अहमदाबाद के नजदीक बावला नगर में आए थे जहां उन्हें सम्मान पत्र दिया गया था।
इसके अलावा एक और रोचक प्रसंग है जिसका उल्लेख आंबेडकरी मुहिम के रिसर्चर डॉ. पी. जी. ज्योतिकर ने अपने पुस्तक “गुजरातनी आंबेडकरी चलवलनो इतिहास” में किया है। डॉ. ज्योतिकर लिखते हैं कि “राजकोट में जिम्मेदार राज्यतंत्र की मांग को लेकर आंदोलन चल रहा था। राजकोट के दीवान वीरावाला ने इस समय बाबासाहेब को राजकोट आने का न्योता दिया था। डॉ. आंबेडकर १८ अप्रैल १९३९ को बंबई से राजकोट हवाई यात्रा करके आए। स्टेट गेस्ट होने के कारण सरकारी अतिथि गृह में ठहरे। उन्होंने राजकोट के राजवी धर्मेंद्रसिंह और दीवान वीरावाला से मुलाकात की। रात को दलितवास में पीपल के पेड़ के नीचे एक सभा को संबोधित किया और वालाभाई सरवैया को रिपब्लिकन पार्टी का परचम दिया और प्रचार करने को कहा। उनके राजकोट आने से अस्पृष्यों का उत्साह बढ़ा और आंबेडकरी मुहिम और तेज हुई।”
इसके अलावा १५ और १६ मार्च १९४१ को डॉ बाबासाहेब आंबेडकर अहमदाबाद आए थे उस वक्त उन्होंने अहमदाबाद की चालियो ( chawls) में घूमकर युवाओ को समता सैनिक दल में भर्ती होने का आह्वान किया था। जनवरी १९४६ में डॉ आंबेडकर सूरत भी आए थे और उनका स्वागत करने के लिए अस्पृष्यो की बड़ी जनमेदनी स्टेशन पर उमड़ पड़ी थी। उन्होंने वहां दोपहर को सिविल पायनियर्स फोर्स का निरीक्षण किया था। २९ और ३० नवंबर १९४५ को डॉ आंबेडकर शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के अधिवेशन के लिए अहमदाबाद आए थे। वहां सभा में उन्होंने अपने प्रवचन की शुरुआत गुजराती में की थी और पूरा भाषण गुजराती में किया था। उस दिन अहमदाबाद म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के द्वारा उनका सम्मान भी किया गया था।
बहुमुखी व्यक्तित्व के मालिक डॉक्टर आंबेडकर एक महान पत्रकार भी थे। “मूकनायक” समेत पांच अखबार उनके नेतृत्व में चलाए गए थे। अपने क्रांतिकारी विचारों को शब्दों के माध्यम से उन्होंने अस्पृश्य समाज में बखूबी प्रसारित किया। साथ में उन्होंने अस्पृश्यता निवारण की मुहिम में लगे अपने बंधुओं के द्वारा कि गई पत्रकारिता को भी सराहा था। डॉ. ज्योतिकर अपने पुस्तक “गुजराती दलित पत्रकारत्व” मे लिखते है की डॉ. आंबेडकर ने कई गुजराती दलित पत्रकारों को प्रोत्साहित किया था। धनजीभाई जोगड़िया द्वारा प्रकाशित “भेरुबंध” अखबार को उन्होंने पत्र भेजकर बधाई दी थी और “….गुजराती दलित भाई के लिए मराठी-जनता जैसे पत्र की विशेष जरूरत है और “भेरूबंध” गुजराती-जनता जैसा काम करेगा ऐसी मुझे आशा है” ऐसे आशीर्वाद भी दिए।