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संविधान पीठ का फैसला : ‘क्रिमिनल और सिविल केस में दिये गये स्टे को 6 माह के लिए सीमित नहीं किया जा सकता’

संविधान पीठ का फैसला : ‘क्रिमिनल और सिविल केस में दिये गये स्टे को 6 माह के लिए सीमित नहीं किया जा सकता’

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नई दिल्ली, 29 फरवरी। देश के प्रधान न्यायाधीश (CJI) जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ की अगुआई वाली संविधान पीठ ने गुरुवार को एक महत्वपूर्ण आदेश के जरिए सुप्रीम कोर्ट के ही वर्ष 2018 के उस फैसले को रद कर दिया, जिसमें शीर्ष अदालत ने आदेश दिया था कि क्रिमिनल और सिविल केस में मिलने वाला स्थगनादेश (स्टे) छह माह तक के लिए ही सीमित रहेगा।

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि छह महीने के बाद सभी प्रकार के मामलों में रोक हटाने के लिए कोई सामान्य निर्देश नहीं हो सकता और इसे संबंधित अदालतों के विवेक पर छोड़ देना चाहिए। चीफ जस्टिस की जिस संवैधानिक बेंच ने यह आदेश दिया है, उसमें जस्टिस एएस ओका, जस्टिस जेबी पारदीवाला, जस्टिस पंकज मिथल और जस्टिस मनोज मिश्रा के विचार एक समान थे।

उच्च न्यायालय बार एसोसिएशन ऑफ इलाहाबाद द्वारा दायर एक अपील की अनुमति देते हुए शीर्ष अदालत ने एशियन रिसर्फेसिंग ऑफ रोड एजेंसी बनाम सीबीआई में वर्ष 2018 में दिए तीन न्यायाधीशों की पीठ के फैसले की समीक्षा की, जिन्होंने उस समय कहा था कि स्टे का आदेश जीवन को सीमित करना एक प्रभावी तरीका हो सकता है।

वस्तुत: 2018 के फैसले में कहा गया था, ‘ऐसे मामलों में जहां भविष्य में स्टे दिया जाता है, वह ऐसे आदेश की तारीख से छह महीने की समाप्ति पर स्वतः समाप्त हो जाएगा, जब तक कि स्टे को आगे के लिए विस्तार नहीं दिया जाता है।’

सुप्रीम कोर्ट के इसी फैसले को पलटते हुए पांच जजों की बेंच ने कहा कि संवैधानिक अदालतों को अन्य अदालतों द्वारा मामलों के निबटारे के लिए कोई समय सीमा तय नहीं करनी चाहिए और आउट-ऑफ-टर्न प्राथमिकता का मुद्दा भी संबंधित अदालतों पर छोड़ दिया जाना चाहिए।

न्यायमूर्ति ओका ने फैसले को पढ़ते हुए कहा, ‘किसी मामले को समय सीमा के भीतर तय करने के लिए जिला अदालतों को निर्देश असाधारण परिस्थितियों में पारित किया जाना चाहिए। संवैधानिक अदालतों को मामलों का फैसला करने के लिए समय सीमा तय करने से बचना चाहिए। उच्च न्यायालयों सहित हर अदालत में मामलों के लंबित रहने का पैटर्न अलग-अलग है। इस प्रकार कुछ मामलों की आउट-ऑफ़-टर्न प्राथमिकता संबंधित अदालतों पर छोड़ दिया जाना चाहिए।’ वहीं फैसले में न्यायमूर्ति मिथल ने एक अलग, लेकिन सहमति वाला निर्णय लिखा।

शीर्ष अदालत एक दिसम्बर को वकील निकाय की याचिका पर पुनर्विचार के लिए 2018 के फैसले को संविधान पीठ के पास भेजने पर सहमत हुई है। उनकी अपील तीन नवम्बर के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ निर्देशित की गई थी, जिसने सुप्रीम कोर्ट के 2018 के फैसले का हवाला देते हुए स्टे बढ़ाने वाले आवेदनों को खारिज कर दिया था।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने स्वयं के आदेश पर फिर से विचार करने पर सहमति व्यक्त करते हुए कहा कि याचिका ने कानून के महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए हैं कि क्या ऐसा आदेश ‘न्यायिक कानून’ के बराबर है क्योंकि किसी भी मामले पर निर्णय लेने के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती है।

गत 13 दिसम्बर को मामले की बहस के दौरान इलाहाबाद एचसी बार एसोसिएशन का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील राकेश द्विवेदी ने तर्क दिया कि इस तरह के आदेश से उच्च न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र पर भी असर पड़ता है, जो सुप्रीम कोर्ट के अधीनस्थ नहीं हैं। वहीं मामले में केंद्र की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने बार संस्था का समर्थन करते हुए कहा कि 2018 के फैसले ने उच्च न्यायालयों के न्यायिक विवेक को कम कर दिया है। इसलिए स्टे की दी गई छह महीने की समय सीमा को खत्म कर दिया जाना चाहिए।

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