नई दिल्ली, 13 जुलाई। भारत की सनातन संस्कृति में ‘गुरु’ को एक परम भाव माना गया है, जो कभी नष्ट नहीं हो सकता। इसीलिए हमारे यहां गुरु को व्यक्ति नहीं अपितु विचार की संज्ञा दी गई है। ‘गुरु’ शब्द की महानता इसके दो अक्षरों में ही समाहित है। संस्कृत में ‘गु’ का अर्थ है अंधकार (अज्ञान) और ‘रु’ का अर्थ हटाने वाला। यानी गुरु वह होता है, जो हमारे जिंदगी से अंधेरा हटाने में हमारी मदद करता हैं। भारतीय इतिहास में ‘गुरु’ की भूमिका हमेशा से समाज को सुधार की ओर ले जाने वाले मार्गदर्शक के साथ क्रांति की दिशा दिखाने वाली भी रही है।
योग गुरु बाबा रामदेव गुरु पूर्णिमा के मौके पर स्वदेशी सोशल मीडिया प्लेटफार्म कू एप (Koo App) पर संदेश देते हुए कहते हैं, ‘जब हमें किसी चीज का ज्ञान होता है, तब चीजों को संभालना आसान हो जाता है। जब हम जिंदगी के बारे में थोड़ा बहुत समझ लेते हैं या जान लेते हैं, तो चीजों को संभालना आसान हो जाता है। जब एक शिष्य के जीवन में गुरु का आगमन होता है, तब उसकी परम सत्य के बारे में भी सजगता बढ़ जाती है। गुरु आपको अच्छे से मथते हैं, ताकि आपका सर्वांगीण विकास हो सके और आप दिव्यता के साथ एक हो सकें। धूप हो या तूफान, गुरु उस कुटिया की तरह हैं, जिसके भीतर जाकर आपको सुकून अवश्य प्राप्त होगा।’
बाबा रामदेव ने कहा, ‘वैसे तो हमारे माता-पिता हमारे जीवन के प्रथम गुरु होते हैं, जो हमारा पालन-पोषण करते हैं, हमारे जीवन के सामान्य व्यवहार की शिक्षा देते हैं और समाज में रहने तौर तरीके बताते हैं। लेकिन जीवन को सार्थकता प्रदान करने के लिए हमें जिस शिक्षा व विद्या की आवश्यकता होती है, वह हमें सद्गुरु से ही प्राप्त हो सकती है।’
योग गुरु ने कहा, ‘हालंकि गुरु और शिष्य के बीच केवल शाब्दिक ज्ञान का ही आदान-प्रदान नहीं होता था बल्कि गुरु अपने शिष्य के संरक्षक के रूप में भी कार्य करता था। गुरुओं के शांत पवित्र आश्रमों में अध्ययन करने वाले शिष्यों की बुद्धि भी तभी उज्ज्वल और उदात्त हो जाती थी। आचार्य अपने शिष्यों के स्वाभाविक गुणों को परिष्कृत करने के साथ उन्हें जीवन विद्या का प्रशिक्षण देकर भविष्य की चुनौतियों के लिए तैयार करते थे। आज विद्यादान का यह भाव विलुप्तप्राय है।’