1. Home
  2. हिन्दी
  3. राजनीति
  4. मिशन- 2022 : बसपा के लिए 2007 दोहराना किसी करिश्मे से कम नहीं
मिशन- 2022 : बसपा के लिए 2007 दोहराना किसी करिश्मे से कम नहीं

मिशन- 2022 : बसपा के लिए 2007 दोहराना किसी करिश्मे से कम नहीं

0
Social Share

लखनऊ, 7 जनवरी। ब्राह्मण- दलित और अल्पसंख्यक मतों के सहारे बहुजन समाज पार्टी आसन्न विधानसभा चुनाव में वर्ष 2007 जैसी बंपर जीत का दावा कर रही है। जबकि 2022 में संगठनात्मक तौर पर पार्टी सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। चुनावों में जीत की घटती संभावनाओं के चलते पार्टी छोड़कर जाने वाले नेता और विधायकों का सिलसिला लगातार जारी है। ऐसे में 2007 में हुए चुनावों के दौरान मिली बंपर जीत का करिश्मा माहौल बनाने का नुस्खा भर माना जा रहा है। वैसे आगामी चुनावों में यदि बसपा वर्ष 2017 में किया गया अपना प्रदर्शन दोहरा पाती है तो यह भी किसी करिश्मे से कम नहीं होगा।

पिछले कुछ वर्षों में नेताओं की आवाजाही ने बिगाड़ा समीकरण

प्रदेश में कभी भाजपा, कभी सपा के सहारे सत्ता की कुर्सी पाने वाली बसपा ने वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में बंपर जीत हासिल की थी। उस दौरान प्रदेश की 403 में 206 विधानसभा सीटों पर पार्टी को जीत मिली थी। इस जीत के बाद पहली बार पार्टी नेत्री मायावती पांच साल तक मुख्यमंत्री पद पर रहीं और कुशल प्रशासक की छवि बनाई। यही नहीं सरकार बनने के बाद पार्टी संगठनात्मक तौर पर मजबूत भी हुई और पूरे प्रदेश में दलितों, अल्पसंख्यकों और पिछड़े वर्ग के लोगों को भी पार्टी से जोड़ने में सफल रही।

हालांकि पहली बार सत्ता मिलने के बाद सत्ताजनित बीमारियां दूसरे दलों की तरह बसपा में भी आईं, जिसका खामियाजा पार्टी को 2012 के विधानसभा चुनाव में उठाना पड़ा और पार्टी महज 79 सीटों पर ही जीत हासिल कर सकी। सत्ता से दूर होते ही पार्टी से नेताओं को छिटकने का दौर भी शुरू हो गया। कुछ पार्टी सुप्रीमो मायावती की कार्यशैली और कुछ समाजवादी पार्टी की सरकार के प्रलोभन के चलते बसपा के नेताओं के पार्टी छोड़ने का सिलसिला जारी हो गया।

बाबूराम कुशवाहा और नसीमुद्दीन जैसे दूसरी कतार के नेताओं ने भी पाटी छोडना शुरू कर दिया। जिसकी वजह से वर्ष 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी महज 19 सीटें ही जीत सकी। जीते हुए 19 में विधायकों में से असलम राईनी, असलम अली चौधरी, मुज्तबा सिद्दिकी, हाकिल लाल बिंद, हरगोविंद भार्गव, सुषमा पटेल, वंदना सिंह, लालजी व दो दिन पहले माधुरी वर्मा ने भी पार्टी से किनारा कर लिया।
जिसके बाद अब विधानसभा में पार्टी के महज तीन विधायक ही बचे हैं। ऐसे में पार्टी 12 से 15 फीसदी बेस वोट के साथ अगर 11 फीसदी ब्राह्मण और 18 फीसदी अति पिछड़ा वर्ग में सेंधमारी कर सकी और भाजपा से टक्कर लेती दिखी तो 21 फीसदी अल्पसंख्यक वोट का भरोसा हासिल करने में ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी। हालांकि दस वर्षों में पार्टी में आयाराम-गयाराम संस्कृति ने पार्टी की संभावनाओं को कम किया है।

साल भर में पार्टी के इन नेताओं को साइकिल ने लुभाया

इसी साल हुए पंचायत चुनाव के बाद मायावती ने विधानमंडल दल के नेता लालजी वर्मा और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष राम अचल राजभर को पार्टी से निकाल दिया। ये दोनों नेता वष 2017 में भाजपा की प्रचंड लहर के दौरान भी अपनी सीट बचा ले गए थे। यहीं नहीं दोनों नेता बसपा संस्थापक कांशीराम के समय से पार्टी से जुड़े थे।

डॉ. धर्मपाल सिंह भी वापस सपा में चले गए। एक समय बसपा के वरिष्ठ नेताओं में शुमार कुंवरचंद वकील भी सपा में शामिल हो गए। इसी तरह जनवरी में सुनीता वर्मा, पूर्व मंत्री योगेश वर्मा भी पार्टी छोड़कर समाजवादी पार्टी में शामिल हो चुके हैं। विधायक मुख्‍तार अंसारी के बड़े भाई सिब्कातुल्लाह अंसारी और अंबिका चौधरी भी साइकिल पर सवार हो गए।

पिछले विधानसभा चुनावों में बसपा का प्रदर्शन

वर्ष 2002 में 23.06 प्रतिशत

वर्ष 2007 में 40.43 प्रतिशत

वर्ष 2012 में 26.52 प्रतिशत

वर्ष 2017 में 22.02 प्रतिशत

LEAVE YOUR COMMENT

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Join our WhatsApp Channel

And stay informed with the latest news and updates.

Join Now
revoi whats app qr code