पुण्य तिथि : संजय गांधी ने की थी बुलडोजर एक्शन की शुरुआत, आज भी तुर्कमान गेट को याद करते हैं लोग
नई दिल्ली, 23 जून। उत्तर प्रदेश हो या राजधानी दिल्ली, बुलडोजर काररवाई को लेकर चर्चाएं जारी हैं। संपत्तियों को बुलडोजर के जरिए गिराने के चलते सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी विपक्ष के निशाने पर है। लेकिन भाजपा के नेता भी इस तरह की काररवाई के तार कांग्रेस के सियासी इतिहास से जोड़ रहे हैं।
संयोग से आज दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पुत्र और तेजतर्रार कांग्रेस नेता संजय गांधी की 42वीं पुण्यतिथि भी है। बुलडोजर एक्शन नया नहीं है और अगर दशकों पुरानी घटनाओं को देखें, तो संजय की भूमिका बेहद अहम नजर आएगी। ऐसी ही एक घटना तुर्कमान गेट विध्वंस की भी है, जो लोगों के जेहन में आज भी जिंदा है।
कहा जाता है कि आपातकाल के दौर में संजय की सियासी पारी ने रफ्तार पकड़ी। बड़े स्तर पर नसबंदी से लेकर तुर्कमान गेट जैसे कई विवादित अध्याय भारतीय इतिहास का हिस्सा बने।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, बात 1976 की है, जब संजय गांधी ने सरकारी अधिकारियों को दिल्ली में परिवार नियोजन अभियान को तेज करने के आदेश दिए थे। साथ ही उन्होंने दिल्ली को सुंदर बनाने के भी आदेश जारी किए, जिसका मतलब सभी झुग्गी झोपड़ियों को हटाना और वहां रहने वालों की नसबंदी करना था।
तुर्कमान गेट विध्वंस
13 अप्रैल 1976 को पहली बार बुलडोजर तुर्कमान गेट के अंदर आया और कुछ झुग्गियों को हटा दिया। हालांकि, इस दौरान इस काररवाई का स्थानीय लोगों ने विरोध नहीं किया। कुछ रिपोर्ट्स बताती हैं कि कांग्रेस नेता तुर्कमान गेट आए थे और वह इलाके में रहने वाले लोगों की तरफ से किए गए स्वागत से नाखुश थे। यह भी कहा जाता है कि तुर्कमान गेट के आसपास बने भवनों के चलते भी वह जहां खड़े थे, वहां से ज्यादा दूर तक नहीं देख पा रहे थे।
यहां से शुरू हुआ तनाव
15 अप्रैल को दुजाना हाऊस फैमिली प्लानिंग कैंप की शुरुआत हुई। इसके बाद से ही रिक्शा चालकों, भिखारियों समेत कई लोगों को जबरन नसबंदी के लिए ले जाया जाने लगा। 19 अप्रैल को जब बुलडोजर ने दोबारा प्रवेश किया, तो लोगों ने दुजाना हाऊस पर हमला बोल दिया। उस दौरान पुलिस को भीड़ को काबू करने के लिए लाठी चार्ज और आंसू गैस के गोलों की मदद लेनी पड़ी थी।
मौके पर 7 हजार से ज्यादा लोग जुट गए थे और पत्थर, एसिड बल्ब जैसी चीजें फेंकना शुरू कर दिया। खबरें हैं कि ऐसे में पुलिस ने गोलियां चलाने का फैसला लिया। खास बात है कि उस दौरान हुई मौतों का आधिकरिक आंकड़ा नहीं है। साथ ही यह भी कहा जाता है कि मीडिया को दंगा की कवरेज की अनुमति नहीं थी।