महाकुंभ 2025: नागा साधुओं का वस्त्र होता है भभूत, योग के जरिए अपने इंद्रियों पर रखते हैं नियंत्रण
प्रयागराज, 21 दिसंबर। निर्वस्त्र नागा संन्यासी तन पर भस्म की भभूत लपेटे बड़ी बड़ी जटाओं के साथ हाथों में चिमटा, कमंडल और चिलम का कस लगाते हुए धूनी रमाकर अलमस्त जिंदगी के धनी होते हैं। महाकुंभ का सबसे बड़ा जन आकर्षण अगर सनातन धर्म के 13 अखाड़े हैं, तो इन अखाड़ों का श्रृंगार इनके नागा संन्यासी होते हैं। सामान्य दिनों में इंसानी बस्तियों से दूर गुफाओं और कंदराओं में वास करने वाले इन नागा संन्यासियों की महाकुंभ में बाकायदा टाऊन शिप बन जाती है। तन पर भस्म की भभूत और हाथों में अस्त्र लिए अपनी ही मस्ती में डूबे इन नागा संन्यासियों को न दुनिया की चमक धमक से लेना देना है और न धर्माचार्यों के वैभव की जिंदगी से कुछ लेना-देना है।
श्री पंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी के सचिव श्रीमहंत यमुना पुरी ने बताया कि नागा की भभूत या भस्म लम्बी प्रक्रिया के बाद तैयार होती है। नागा या तो किसी मुर्दे की राख को शुद्ध कर शरीर पर मलते हैं अथवा उनके द्वारा किए गए हवन की राख को शरीर पर मलते हैं। हवन कुंड में पवित्र आम, पीपल, पाकड़, रसाला, बेलपत्र, केला, गाय का गोबर को जलाकर भस्म तैयार करते हैं। इस भस्म हुई सामग्री की राख को कपड़े से छानकर कच्चे दूध में इसका लड्डू बनाया जाता है। इसे कई बार अग्नि में तपाया और फिर कच्चे दूध में बुझाया जाता है। इस प्रकार से तैयार भस्मी को शरीर पर पोता जाता है। यही भस्मी नागा साधुओं का वस्त्र होता है।
श्रीमहंत यमुना पुरी ने बताया कि नागा साधु बनने के लिए एक व्यक्ति को कई कठिन परीक्षाओं से गुजरना होता है। इन सभी परीक्षाओं में कपड़ों का त्यागना भी शामिल रहता है। नागा साधु गुफाओं, कंदराओं और अपने मठो में ईश्वर वंदना में लीन रहते हैं। चाहे कितनी भी ठंड पड़े, नागा साधु कभी वस्त्र नहीं पहनते। ये साधु लंबे समय तक योग और तपस्या करते हैं जिससे इनके शरीर पर प्राकृतिक चीजों का असर नहीं पड़ता है। इसके साथ ही वे लोग शरीर पर भभूत लपेटे रहते हैं। वह शरीर को गर्म रखने के लिए सूर्य भेदी प्राणयाम और तापस योग करते हैं। योग के जरिए वे अपने इंद्रियों और शरीर पर नियंत्रण रखते हैं जिससे उन्हें न/न अधिक सर्दी और नहीं गर्मी का अहसास होता है। वह वाह्य चीजों को आडंबर मानते हैं।
उन्होंने बताया कि नागा साधु निवस्त्र रहते हैं और पूरे शरीर पर भभूत मले रहते है, यही उनका वस्त्र होता है। उनकी बड़ी-बड़ी जटाएं भी आकर्षण का केन्द्र होती हैं। हाथों में चिमट, कमंडल और चिलम का कस लगाते हुए अलमस्त जिंदगी जीते हैं। माथे पर आडा भभूत लगा तीन धारी तिलक लगाकर धूनी रमाकर रहते हैं। भभूत ही उनका वस्त्र होता है। यह भभूत उन्हें बहुत सारी आपदाओं से बचाती है।
बिना वस्त्रों के अपने ही धुन में रहने वाले नागा संन्यासियों की कई उप जातियां हैं। इसमें दिगंबर, श्रीदिगंबर, खूनी नागा, बर्फानी नागा, खिचड़िया नागा प्रमुख हैं। इसमें जो एक लंगोटी पहनता है, उसे दिगंबर कहते है जबकि और श्रीदिगंबर एक भी लंगोटी नहीं पहनता। सबसे खतरनाक खूनी नागा होते हैं ।
महानिर्वाणी अखाड़ा के सचिव ने बताया कि नागा शब्द सबसे पहले भगवान शिव से आता है। नागा का शुद्ध शब्द दिगंबर होता है। दिगंबर भगवान शिव का एक नाम है। दिशाएं जिसके वस्त्र हैं, यह शरीर से एक अलग की अवस्था होती है। जिसने जान लिया है शरीर के अलावा भी उसका कुछ अस्तित्व है, वहीं दिगंबर है।
उन्होंने बताया कि जो जानता है शरीर इस संसार में केवल दिखने के कार्य और कर्म करने के लिए और इन चार पुरूषार्थों में अगर कुछ अधूरा रह गया है, उसकी पूर्ति के लिए शरीर की आवश्यकता है। हम वो हैं जिसे शस्त्र काट नहीं सकते और अग्नि भस्म नहीं कर सकती, वायु सुखा नहीं सकते और जल जिसे गीला नहीं कर सकता है।
उन्होंने बताया कि जो आत्मतत्व की तरफ उन्मुख है और गुरू के आर्शीवाद से और गुरू परंपरा से दीक्षित होकर उस आत्मतत्व को जो जान जाते हैं उस आत्मा के स्वास्तिक स्वरूप को जान जाते हैं, वहीं वास्तव में दिगंबर है। उसके लिए वस्त्र होना, नहीं होना कोई महत्व नहीं रखता है।