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“गुजरात मे नेतृत्व परिवर्तन के मायने”

“गुजरात मे नेतृत्व परिवर्तन के मायने”

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डॉ शिरीष काशीकर

खैर, गुजरात में एक महीने पहले हुए अमुलाग्र  नेतृत्व परिवर्तन के बाद गांधीनगर महानगरपालिका काबिज करके प्रदेश भाजपा संगठन ने फिर से साबित कर दिया की “बॉस” कौन है। यह सिर्फ एक और जीत नहीं है क्योंकि पिछले दो चुनावों में यहा भाजपा हारने के बाद राजनैतिक उठापटक करके सत्ता पर आई थी,इस बार ४१ सीट( कुल बैठके ४४) लाकर तहलका मचा दिया।इसे अगर आनेवाले गुजरात विधानसभा चुनावों का एक छोटा लिटमस टेस्ट समझा जाए तो ये तय है की कांग्रेस के हाल बुरे होने वाले है।

वैसे तो जिस प्रकार से “हाईकमांड” ने दिल्ली से चक्कर चलाया और एक ही कंकड़ में कुछ पंछी मार दिए तो कुछ को घायल कर दिया। शांत स्वभाव के और भाजपा का “सॉफ्ट” चेहरा माने जानेवाले मुख्यमंत्री विजय रुपाणी और डिप्टी सीएम नितिनभाई पटेल को “आराम” दे दिया गया। राजनीतिक गलियारों में अब कानाफूसी है कि शायद आनेवाले साल में होनेवाले चुनाव विजयभाई जैसे “सॉफ्ट चेहरे” के साथ लड़ना भाजपा के लिए खतरे की घंटी साबित हो सकता था।

गांधीनगर महापालिका के चुनावो ने फिर एक बार यह साबित कर दिया की अगर कांग्रेस अपनी ही अंदरूनी राजनीति में उलझी रहेती है तो उसका स्थान लेने के लिए आम आदमी पार्टी बेकरार है।और वैसे भी जिस प्रकार से राज्य में आम आदमी पार्टी अपनी “न्यूसेंस वैल्यू” के बलबूते पर पैर जमाने की कोशिश कर रही है आने वाले समय में वह निश्चित ही पहले से बिखरी हुई कांग्रेस को और बिखेर देगी, ऐसे में जहां गुजरात में कभी भी तीसरी पार्टी की राजनीति सफल नहीं हुई है वहां कांग्रेस का स्थान अगर आम आदमी पार्टी ले लेगी तो बहुत ही जल्द भाजपा के सामने एक पुरानी राजनीतिक चैलेंज खत्म हो जाएगी।

वैसे जिस प्रकार से गुजरात में नेतृत्व परिवर्तन और नए मंत्रिमंडल का गठन हुआ उसने फिर से पटेल पॉलिटिक्स बनाम अन्य वाली चर्चा फिर छेड़ दी। यह बात भी ठीक है कि गुजरात की राजनीति में पाटीदारों का जलवा पिछले करीबन ४० सालों से बरकरार रहा है। जनसंघ के बाद भाजपा ने भी उन्हें अपने गले लगाया और एक बड़ा वर्ग हमेशा भाजपा के साथ रहा है। २०१९ की लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा वोटिंग ६३% पाटीदारों का था बाद में क्षत्रिय ५८% सभी ओबीसी वर्ग कुल मिलाकर ७८%, दलित २८% आदिवासी ५१% मुस्लिम २५% और बाकी सभी समूहों ने कुल मिलाकर ७३% वोटिंग किया था। २००९ में जब पाटीदार भाजपा से नाराज हो गए तो उसका खामियाजा भी भाजपा ने भुगता था। सौराष्ट्र कच्छ की ५०% बैठके कांग्रेस ने छीन ली थी। इस घटनाक्रम से एक बात और भी हुई थी की पाटीदारों के अलावा और भी जातिगत समूहों ने अपने राजनीतिक हक्को की पुरजोर मांगे शुरू कर दी थी। कोली, क्षत्रिय, आदिवासी, ओबीसी के नाम पर हो-हल्ला शुरू हो गया था।

राज्य में कोली समाज और ओबीसी का ४८% वर्चस्व है उसके बाद १३% के साथ आदिवासी वोटर है। इसी बात की नजाकत को समझते हुए नए मुख्यमंत्री की टीम में भी “कास्ट फैक्टर” को बैलेंस करने की कोशिश की गई है ताकि सिर्फ पाटीदारों ने अपनी ताकत से सब कुछ ले लिया ऐसा चित्र खड़ा ना हो। मजेदार बात तो यह है कि तीन पुराने राजनीति के खिलाड़ी राजेंद्र त्रिवेदी, राघवजी पटेल और किरिटसिंह राणा को छोड़कर एक भी अनुभवी मंत्री इस टीम में  नहीं है। सूरत के युवा विधायक हर्ष संघवी सात पोर्टफोलियो संभाल रहे हैं, यह निर्देश स्पष्ट है कि भाजपा सूरत में अब आम आदमी पार्टी को पनपने नहीं देना चाहती।

जिस प्रकार से भाजपा के नए मुख्यमंत्री भूपेंद्रभाई और उनकी मंत्रियों की टीम का गठन हुआ है दो बातें स्पष्ट हो गई है, आने वाले चुनाव में “हाईकमांड” जिनको घर पर बिठाना चाहता है ऐसे “एनपीपीए” (नॉन परफॉर्मिंग पॉलिटिकल ऐसेट) विधायको को टिकट नहीं मिलेगा। वहां पर भी मंत्रिमंडल की तरह ही “नो रिपीट” थिअरी आने की पूरी संभावना है।हाल ही मे भाजपा प्रदेशाध्यक्ष पाटिल ने एक कार्यक्रम में स्पष्ट कहा की कम से कम सौ विधायको के टिकट कट सकते है, इसमें दिग्गज और पुराने विधायक भी बह जाए यह संभावनाएं अभी से दिख रही है। और यही एक कारण है कि रातों-रात लाल लाइट वाली गाड़ी चली जाने के बावजूद पुराने कांग्रेसी और मूल भाजपा के कुछ पुराने खिलाड़ियों के मुंह सिले हुए है और अगर बोलते हैं तो भी पार्टीलाइन के बाहर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे।हालांकि पाटिल के इस बयान से कार्यकर्त्ता बेहद खुश है क्योंकि बरसो से चुनावी राजनीति में जमे वृद्ध नेताओ का स्थान उन्हें मिलने की अब आस जगी है।

दूसरी बात यह भी सिद्ध हुई है कि प्रदेश अध्यक्ष सी आर पाटिल का हाथ फिर से ऊपर रहा है। संगठन अब सरकार पर हावी होना शुरू हो गया है। जिस प्रकार से नया नेतृत्व सामने आया है उसमें प्रदेश अध्यक्ष की बेहद अहम भूमिका रही है। इस बात का प्रतिबिंब आनेवाले चुनाव में टिकटों के बंटवारे पर भी पड़ेगा। उस वक्त भी टिकट के बंटवारे में पार्टीलाइन पर चलनेवाले और सालों से एक बड़े चुनावी राजनीतिक मौके की तलाश कर रहे युवा कार्यकर्ताओं को तरजीह जरूर मिलेगी। शायद यही कारण है कि भाजपा के युवा कार्यकर्ताओं में फिर से जोश का संचार होने लगा है।

जहां तक कांग्रेस की बात की जाए तो उसकी परिस्थिति में कोई विशेष सुधार अभी भी नहीं हुआ है। हालांकि अब जब चुनाव को सिर्फ १ साल बचा है तब भी वह अपनी अंदरूनी लड़ाई में व्यस्त हैं।एक दूसरे को निपटाने में नेतालोग प्रदेश के कार्यकर्ताओं का मनोबल और गिरा रहे है। अभी भी प्रदेश अध्यक्ष और विपक्ष के नेता तय नहीं हुई है, आनेवाले समय में कांग्रेस को ना सिर्फ अपने संगठन को बचाए रखने की समस्या है बल्कि आम आदमी पार्टी और ओवैसी की आहट भी उसकी परेशानी का सबब है। “आप” गुजरात की राजनीति को समझते हुए नंबर टू बनने के लिए हर सस्ते महंगे राजनीतिक हथकंडे अपना रही हैं, तो ओवैसी भी विधानसभा चुनाव में कूदने के लिए ताल ठोक चुके हैं।

हाल ही में गुजरात में आकर ओवैसी ने कहा था कि पार्टी का स्थानीय निकाय यह तय करेगा कि वह कितनी सीटों पर चुनाव लड़ेगा। उन्होंने सिर्फ मुस्लिम बहुल विस्तारो में ही नहीं किंतु हिंदू इलाके में भी अपने उम्मीदवार खड़ा करने की बात कही जो उनकी मुस्लिम दलित कॉम्बिनेशन  की रणनीति को उजागर करता हैं। इससे साफ हो गया है कि आनेवाले दिनों में गुजरात कांग्रेस लगातार अपना जनाधार खोने लगे ऐसी स्थिति आ जायेगी क्योंकि गुजरात में उसकी सबसे वफादार “वोटबैंक” मुस्लिम और कुछ हद तक दलित अगर उससे दूर चले गए तो कांग्रेस अपना स्थान निश्चित ही गवा देंगी।

हालांकि नेतृत्व परिवर्तन के बाद भाजपा के सामने सब कुछ ठीक हैं ऐसा भी नहीं है। नए नेतृत्व के सामने सरकारी अधिकारियों पर नियंत्रण रखना, पार्टी कार्यकर्ताओं को उत्साहित रखना,२५ साल के लगातार शासन के बाद थोड़े बहुत नाराज हो रहे भाजपा के पुराने सपोर्टर मतदाताओं को नई योजनाओं और नए तरीकों से लुभाना जैसे मुद्दे है।  हालांकि दो तीन अनुभवी मंत्रियों को छोड़कर  मंत्रिमंडल में सभी नए चेहरे होना भी अपने आप में एक चैलेंज है। १ साल जैसे कम समय में उन्हें अपने आप को साबित करना होगा वरना अगले चुनाव में उनकी कुर्सी भी खतरे में पड़ सकती है। भाजपा हाईकमांड ने एक बेहद नाजुक मोड़ पर यह फैसला लिया है उसको सही साबित करना नए मुख्यमंत्री और संगठन दोनों के लिए कोई आसान बात नहीं होगी।

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