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स्व. मृदुला सिन्हा लिखित ‘परितप्त लंकेश्वरी’ उपन्यास के गुजराती अनुवाद के लिए काश्यपी महा साहित्य अकादेमी अनुवाद पुरस्कार से सन्मानित

स्व. मृदुला सिन्हा लिखित ‘परितप्त लंकेश्वरी’ उपन्यास के गुजराती अनुवाद के लिए काश्यपी महा साहित्य अकादेमी अनुवाद पुरस्कार से सन्मानित

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अहमदावादः साहित्य अकादेमी में आयोजित पुरस्कार प्रदान कार्यक्रम में पत्रकार-अनुवादिका सुश्री काश्यपी महा को साहित्य अकादेमी अनुवाद पुरस्कार-2020 से सन्मानित किया गया.  हिन्दी में 2015 में स्व. मृदुला सिन्हा द्वारा लिखी गई लंकापति रावण की पत्नी मंदोदरी के आत्मकथानक उपन्यास ‘परितप्त लंकेश्वरी’ के 2016 में प्रकाशित गुजराती अनुवाद के लिए उन्हे यह सन्मान मिला है. साहित्य अकादेमी के अध्यक्षश्री चंद्रशेखर कंबार के करकमलो से प्रदान हुए यह पुरस्कार में रु. 50000 के मानधन के साथ एक ताम्रपत्र प्रदान किया गया. गुजराती अनुवाद युनीवर्सीटी ग्रंथनिर्माण बोर्ड द्वारा प्रकाशित ‘परितप्त लंकेश्वरी’ पुस्तक गुजरात के सौराष्ट्र विश्वविद्यालय के पारंगत अभ्यासक्रम में भी सामिल है.

मराठी, हिन्दी एवं अंग्रेजी से गुजराती भाषा में अबतक 65 से ज्यादा पुस्तक के अनुवाद द्वारा साहित्यिक प्रदान करनेवाली काश्यपी पत्रकारत्व में पारंगत एवं अनुपारंगत है. पत्रकारिता की प्रवासी व्याख्याता होने के साथ वह विभिन्न गुजराती अखबारो एवं स्वैच्छिक संस्थाओ के साथ संलग्न रही है. मराठी, हिन्दी एवं अंग्रेजी भाषा से गुजराती भाषा में अनुवाद कार्य करनेवाली काश्यपी महा ने हिन्दी भाषा एवं हिन्दी भाषा में लिखी गई आत्मकथात्मक उपन्यास ‘परितप्त लंकेश्वरी’ के निमित्त से यह सम्मान एवं सौभाग्य प्राप्त होने पर हिन्दी भाषा का आदर एवं गौरव करते हुए दिनांक 31 दिसम्बर 2021 को पुरस्कारप्राप्त ओथर्स मिट में अपनी बात राष्ट्रभाषा हिन्दी में रखते हुए 2016 के वर्ष और पुरस्कारो को जोडते हुए अपनी बात कही.

काश्यपी महा ने कहा कि, 2016 के जनवरी में उनके लेफ्ट पैर में डायाबिटीक फूट की समस्या हो गई थी । चार आपरेशन और प्लास्टिक सर्जरी दरमियां करीब पांच-छ महीने तक उन्हे अस्पताल में रहना पडा. शारीरिक अवस्था बहुत ही खराब थी, साथ में मानसिक अवस्था कमजोर हो रही थी । तभी उन्होने होस्पिटल के बिस्तर पर लेटे-लेटे ही पौल ब्रन्टन द्वारा लिखित ‘हेरमिट्स ओफ हिमालया’ पुस्तक का गुजराती अनुवाद किया, और जब अस्पताल से छुट्टी मिली तब पूरी किताब लैपटोप की सहायता से कंपोज की । काश्यपी कहती है कि यदि उस समय एसी पुस्तक ने उन्हे अगर नहीं संभाला होता तो उनका उस डिप्रेशन से निकलना बहुत मुश्किल था । उस पुस्तक का विषय भी आध्यात्मिक था, जिससे उनके जीवन को भी मजबूत आध्यात्मिक आधार मिला । शब्द की क्या ताकत है उसका सही मायने में ऊन्हे तभी अनुभव हुआ । उस अवस्था में यह अनुवाद उनके लिए एक तप से बिलकुल कम न था । डायबिटीक फूट कि समस्या उनके लिए शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से टर्निंग पोईन्ट साबित हुई. काश्यपी महा को पौल ब्रन्टन के ईसी पुस्तक के गुजराती में प्रकाशित अनुवाद ‘हिमालय अने एक तपस्वी’ के लिए अनुवाद समेत लेखिकाओं के सभी प्रकार के सर्जनात्मक पुस्तकोनी श्रेणी में वर्ष 2016-17 में गुजराती साहित्य परिषद का अनुवाद पुरस्कार प्राप्त हो चूका है.

उसी वर्ष, 2016 में ही ‘परितप्त लंकेश्वरी’ का भी अनुवाद किया, जिसे हाल ही मे गुजराती भाषा में हुए अनुवाद के तौर पर केन्द्रीय साहित्य अकादेमी द्वारा 2020 के साहित्य अकादेमी अनुवाद पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया है । 2021 में मरणोपरांत पद्मश्री सन्मान से सन्मानित हुई मृदुला सिंहा द्वारा लिखित यह पुस्तक परितप्त लंकेश्वरी एक आत्मकथनात्मक उपन्यास है  । काश्यपी महा बताती है कि यह उपन्यास में लंकापति रावण की पत्नी मंदोदरी रामायण के विविध प्रसंगो में अपनी मन की बात, अपना दष्टिकोण पाठक के सामने रखती है । इस विषय पर लिखना किसी भी सिद्धहस्त लेखक की कलम की कसौटी जैसा काम है क्योंकि हमारे साहित्य में मंदोदरी का पात्र इतना उपेक्षित रहा है कि उनके बारे में कुछ मजबूत ऐसा साहित्य कहीं भी उपलब्ध नहीं है ।

इस परिस्थिति में उन्होंने मंदोदरी पर 250 पृष्ठ की किताब लिखी है, जो कि एक नामुमिकन सा काम है और मृदुला जी ने इस पुस्तक में लिखा है कि जब वे सीताजी के विषय में उपन्यास लिख रही थी तभी सीता के साथ-साथ मंदोदरी का पात्र भी उनके मन में उतना ही संघर्ष मचा रहा था । मृदुलाजीने बहुत ही भावपूर्ण शैली में अत्यत सरल और प्रवाही भाषा के साथ सती मंदोदरी का पात्र निरुपण एक अलग ही अंदाज में किया है, पुस्तक की सफलता यह है कि इसके अंत तक मृदुला जी यह साबित करने में सक्षम रही है कि मंदोदरी भी सीता जी  जितनी पवित्र, आत्मबलशाली, गौरवशाली सती थी । इस पुस्तक की एक और विशेषता उसका अर्पण है  । मृदुला जी ने यह पुस्तक ‘रावण जैसै पतियों को सन्मार्ग पर चलाने की जिद ठानी वीरांगनाओ को’ अर्पित की है । काश्यपी महा का कहना है कि, अगर हम इस पुस्तक की सांप्रत समय में प्रस्तुतता के बारे में विचार करें तो लगता है कि आज भी हमारे समाज में, हमारे आसपास रावण जैसै पुरुष भी है और मंदोदरी जैसी पत्नियां भी । जो आज भी अपने पतियों को सन्मार्ग पर चलाने के लिए रोजबरोज नये-नये संघर्षो का सामना करती है, लेकिन फिर भी इतनी धैर्यशाली भी हैं कि हिंमत इकठ्ठा करके वास्तविक परिस्थिति के सामने जूझ रही है । इस संदर्भ से देखें तो मंदोदरी का पात्र प्राचीन होते हुए भी आज भी उतना ही प्रस्तुत है ।

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