पूर्वोत्तर भारत का ‘शिवाजी’ कहे जाने वाले योद्धा लाचित बरफूकन की जयंती – पढ़ें मुगल सेना को मात देने वाले अहोम योद्धा की कहानी
अहमदाबाद: 17 वीं शताब्दी में, मुगल साम्राज्य भारतीय उपमहाद्वीप के एक बड़े भूभाग पर प्रभावी था। दक्षिण भारत के दक्कन पठार से लेकर उत्तर में अफगानिस्तान और कश्मीर तक फैले मुगल साम्राज्य के सबसे क्रूरतम शासकों में से एक औरंगजेब की दृष्टि असम और उसके आसपास के क्षेत्रों पर भी इस्लामी राज्य की विजय पताका फहराने की थी जो वीर हिन्दू अहोम साम्राज्य का भाग था ।
शक्तिशाली मुगलों के छक्के छुड़ाने और उनके साम्राज्य विस्तार को रोकने के लिए भारत के उत्तर और पश्चिम क्षेत्र के दो महान हिन्दू योद्धाओं- महाराणा प्रताप और शिवाजी महाराज को सभी जानते हैं, किन्तु सुदूर उत्तर पूर्व भारत के अहोम साम्राज्य के सेनापति एक महान योद्धा लाचित बोरफुकन भी थे जिन्होंने असम और पूरे पूर्वोत्तर क्षेत्र में मुगल साम्राज्य के विजय रथ को न मात्र रोक दिया था बल्कि इस क्षेत्र में मुगल साम्राज्य द्वारा आंशिक रूप से अपने नियंत्रण में लिए गए क्षेत्रों को भी उनसे वापस छीन लिया था।
ब्रह्मपुत्र नदी के तट पर सरायघाट की लड़ाई में मुगलों पर विजय के लगभग एक वर्ष बाद प्राकृतिक कारणों से लाचित की मृत्यु हो गई थी। जोरहाट से 16 कि.मी. की दूरी पर स्थित लाचित मैदान में लाचित के अंतिम अवशेष आज भी संरक्षित हैं। जिसे वर्ष 1672 में स्वर्गदेव उदयादित्य चक्रध्वज सिंघा द्वारा हूलुंगपारा में निर्मित कराया गया था।
लाचित बोरफुकन :
लाचित बोरफुकन का जन्म 24 नवंबर, 1622 को अहोम राजवंश के एक बड़े अधिकारी मोमई तामूली बोरबरुआ के घर हुआ था ।
इन्होंने वर्ष 1671 में हुए सराईघाट के युद्ध (Battle of Saraighat) में अपनी सेना को प्रभावी नेतृत्व प्रदान किया, जिससे मुगल सेना का असम पर कब्ज़ा करने का प्रयास विफल हो गया था।
इनके जीवन और रणनीति से भारतीय नौसैनिक शक्ति को मज़बूत करने, अंतर्देशीय जल परिवहन को पुनर्जीवित करने और नौसेना की रणनीति से जुड़े बुनियादी ढाँचे के निर्माण की प्रेरणा ली गई।
राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (National Defence Academy) के सर्वश्रेष्ठ कैडेट को लाचित बोरफुकन स्वर्ण पदक (The Lachit Borphukan Gold Medal) प्रदान किया जाता है।
इस पदक को वर्ष 1999 में बोरफुकन की वीरता से प्रेरणा लेने और उनके बलिदान का अनुसरण करने के लिये रक्षा कर्मियों हेतु स्थापित किया गया था।
इस अजेय और महान योद्धा का लंबी बीमारी के बाद 25 अप्रैल, 1672 को प्राकृतिक निधन हो गया।
अहोम साम्राज्य:
संस्थापक:
चाओलुंग सुकप्पा (Chaolung Sukapppa ) 13वीं शताब्दी के अहोम साम्राज्य के संस्थापक थे, जिसने छह शताब्दियों तक असम पर शासन किया था। अहोम शासकों का इस भूमि पर नियंत्रण वर्ष 1826 की यांडाबू की संधि (Treaty of Yandaboo) होने तक था।
राजनीतिक व्यवस्था:
अहोमों ने भुइयाँ (ज़मींदारों) की पुरानी राजनीतिक व्यवस्था को समाप्त करके एक नए राज्य का गठन किया था।
अहोम राज्य श्रम योगदान प्रारूप पर निर्भर था। राज्य के लिये इस प्रकार की श्रम करने वालों को पाइक (Paik) कहा जाता था।
समाज:
अहोम समाज को कुल/खेल (Clan/Khel) में विभाजित किया गया था। एक कुल/खेल का सामान्यतः कई गाँवों पर नियंत्रण होता था।
अहोम साम्राज्य के लोग हिंदू धर्म का पालन करते और असमिया उनकी शासन प्रशासन की भाषा थी। वे सनातन हिन्दू देवी देवताओं के साथ अपने स्थानीय जनजातीय देवताओं की पूजा करते थे और दैनिक जीवन में अहोम भाषा का भी प्रयोग करते थे
कला और संस्कृति:
अहोम राजाओं ने कवियों और विद्वानों को अनुदान में भूमि दी तथा रंगमंच को प्रोत्साहित किया। संस्कृत के महत्त्वपूर्ण कृतियों का स्थानीय भाषा में अनुवाद कराया गया।
बुरंजी (Buranjis) नामक ऐतिहासिक कृतियों को पहले अहोम भाषा में और उसके बाद असमिया भाषा में लिखा गया।
सैन्य रणनीति:
अहोम राजा, राज्य की सेना का सर्वोच्च सेनापति भी होता था। युद्ध के समय सेना का नेतृत्व राजा स्वयं करता था और पाइक राज्य की मुख्य सेना थी।
पाइक दो प्रकार के होते थे- सेवारत और गैर-सेवारत। गैर-सेवारत पाइकों ने एक स्थायी नागरिक सेना (Militia) का गठन किया था , जिन्हें खेलदार (सैन्य आयोजक) द्वारा छोटे से आह्वान के माध्यम से थोड़े ही समय में एकत्र किया जा सकता था।
अहोम सेना में पैदल सेना, नौसेना, तोपखाने, हाथी, घुड़सवार सेना और जासूस शामिल थे। युद्ध में इस्तेमाल किये जाने वाले मुख्य हथियारों में तलवार, भाला, बंदूक, तोप, धनुष और तीर शामिल थे।
अहोम राजा युद्ध अभियानों का नेतृत्व करने से पहले दुश्मनों की युद्ध रणनीतियों को जानने के लिये उनके शिविरों में जासूस भेजते थे।
अहोम सैनिकों को छापामार युद्ध (Guerilla Fighting) में विशेषज्ञता प्राप्त थी। ये पहले दुश्मनों के सैनिकों को अपनी सीमा में प्रवेश करने देते थे, फिर उनके संचार को बाधित कर उन पर चारों ओर से घेरकर आक्रमण कर देते थे।
चमधारा, सराईघाट, सिमलागढ़, कलियाबार, कजली और पांडु, अहोम साम्राज्य के कुछ महत्त्वपूर्ण किले थे। उन्होंने ब्रह्मपुत्र नदी पर नाव का पुल (Boat Bridge) बनाने की तकनीक भी सीखी थी।
अहोम राजाओं के शासन की सबसे उल्लेखनीय विशेषता यह थी कि नागरिकों और सैनिकों के बीच आपसी समझ तथा संभ्रान्त वर्ग के बीच एकता थी जो किसी भी शत्रु से निपटने के लिए सबसे सुदृढ़ शस्त्र के रूप काम करता है ।
जीवनी
लाचित बोरफुकन हिन्दू अहोम राजवंश के सेनापति थे, जिन्हे असम का शिवाजी भी कहा जाता है। जिस प्रकार पश्चिम भारत में शिवाजी महाराज ने मुग़लों का विजय रथ रोक दिया , ठीक उसी प्रकार पूर्व में लाचित बोरफुकन ने उत्तर पूर्व में मुग़लों के द्वारा अधिगृहीत क्षेत्रों को न मात्र मुक्त कराया बल्कि उन्हे पश्चिम बंगाल के आगे बढ़ने से हमेशा के लिए रोक दिया ।
अहोम राजवंश ने असम (Assam) पर करीब 600 सालों तक राज किया। अहोम राजवंश का शासन 1218 से शुरु होकर 1826 ईस्वी अर्थात अंग्रेजों के शासन काल तक चला। इस राजवंश की स्थापना 1228 ईस्वी में अखंड भारत काल के म्यांमार के चाओलुंग सुकप्पा नाम एक के व्यक्ति ने की थी। इस राजवंश के लोग हिंदू धर्म के अनुयायी थे और हिन्दू धर्म को ही अपना राजधर्म घोषित किया था। जैसा कि सभी जानते हैं कि मुगलों की नीति हमेशा साम्राज्य विस्तारवाद और मजहबी वर्चस्व स्थापित करने की ही थी। मुगलों का अहोम राजवंश के साथ टकराव भी उनकी इसी विस्तारवादी नीति के कारण हुआ। मुगलों और अहोम राजवंश के बीच करीब 70 सालों तक रुक-रुककर संघर्ष चला , लेकिन मुगल इस राजवंश को कभी नहीं जीत सके और लाचित बोरफुकन के साथ युद्ध के बाद मुग़लों का उत्तर पूर्व भारत में साम्राज्य विस्तार का सपना सदैव के लिए टूट गया।
असम के अपने शिवाजी और राणा प्रताप कहे जाने वाले लाचित बोरफुकन जिनका मूल नाम “चाउ लाचित” था , का जन्म 24 नवंबर 1622 को अहोम सेना के बोरबरुआ (कमांडर-इन-चीफ) मोमाई तमुली बोरबरुआ के यहाँ आधुनिक असम के गोलाघाट जिले के बेतियोनी, में हुआ था। “बोरफुकन ” उनकी उपाधि थी जिसे अहोम साम्राज्य के बोरफुकन के रूप में नियुक्त होने के बाद उनके उपनाम के रूप जोड़ दिया गया था। इसी प्रकार उनके पिता का भी मूल नाम सुकुटी था। उन्होंने ने एक बंधुआ श्रमिक के रूप में शुरुआत की थी। अहोम शासक प्रताप सिंघा का ध्यान उनकी कड़ी मेहनत और निष्ठा पर गया जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने उन्हें “बार तमुली” यानि राजकीय उद्यान के अधीक्षक के रूप में नियुक्त कर दिया। उन्हें अपना नया नाम इस तथ्य से मिला कि लोग उन्हें प्यार से “मोमाई” (असम में मामा) कहते थे और राज परिवार में उनके पहले पद का नाम ‘तमुली’ था। मुगल युद्धों के दौरान उन्होंने अपनी बहादुरी और दूरदर्शिता के प्रदर्शन से उनका कद तेजी से बढ़ और असुरार अली की संधि में भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका कद कितना बाद इस बात का आँकलन एक मुगल दूत की उनके बारे में टिप्पणी से की जा सकती है “यदि अहोम शासक एक वास्तविक महादेव है, तो मोमाई तमुली उसका नंदी है और उनके एक साथ रहते हुए उस भूमि को जीतना असंभव है”।
तमुली ने अहोम साम्राज्य के प्रशासन और शासन में भी प्रमुख भूमिका निभाई। अपनी कड़ी मेहनत , निष्ठा और बुद्धिमत्ता से उन्होंने राजा का मन मोह लिया और राजा ने उनकी नियुक्ति अहोम राज्य के पहले बोरबरुआ के रूप में कर दी। बोरबरुआ और बोरफुकन पदों का सृजन प्रतापी अहोम शासक प्रताप सिंघा जिन्हे सुशेंगपा के नाम से भी जाना जाता है, द्वारा किया गया था। राजा प्रताप सिंघा को एक महान प्रशासक के रूप में माना जाता था। वास्तव में प्रताप सिंघा ने ही अहोम शासकों के बुनियादी प्रशासनिक ढांचे की आधार शिला रखी , जिसका अनुसरण उनके बाद के शासकों द्वारा किया गया। प्रताप सिंघा ने अहोम साम्राज्य के शासन का संचालन पाँच विश्वास पात्र बुरहागोहेन, बोरगोहैन और बोरपात्रोगोहेन तथा बोरफुकन और बोरबरुआ के माध्यम से करते थे। उन्हें सामूहिक रूप से पाँच पात्र मंत्री कहा जाता था। बोरफुकन और बोरबरुआ क्रमशः कलियाबोर नदी के पश्चिम और पूर्व के क्षेत्रों पर शासन करते थे, बोर्गोहेन दिखोऊ नदी के दक्षिण क्षेत्र जबकि नदी के उत्तरी हिस्से का शासन बोरगोहेन तथा बोरपात्रगोहेन डफला पहाड़ियों से लेकर ब्रह्मपुत्र तक के क्षेत्र के प्रशासन का काम देखते थे।
पूर्वोत्तर भारत के हिंदू अहोम साम्राज्य की सेना की संरचना बहुत ही व्यवस्थित थी। डेका 10 सैनिकों का, बोरा 20 सैनिकों का, सैकिया, 100 सैनिकों का, हजारिका 1,000 सैनिकों का और राजखोवा 3000 सैनिकों का जत्था होता था। इस प्रकार बोरफुकन 6,000 सैनिकों का संचालन करता था। इन सभी इकाइयों के अलग अलग प्रमुख होते थे।
कुछ अभिलेखों में लाचित बोरफुकन का मूल नाम लाचित डेका भी बताया जाता है जो वास्तव में उनकी बाद की बोरफुकन की उपाधि ही तरह उनकी पहले आरंभिक सैन्य उपाधि ही थी ।
लाचित बोरफुकन ने मानविकी, शास्त्र और सैन्य कौशल की शिक्षा प्राप्त की थी। उन्हें सर्वप्रथम अहोम स्वर्गदेव के ध्वज वाहक का पद सौंपा गया था, जो कि किसी महत्वाकांक्षी कूटनीतिज्ञ या राजनेता के लिए पहला महत्वपूर्ण कदम माना जाता था। बोरफुकन के रूप में अपनी नियुक्ति से पूर्व लाचित अहोम राजा चक्रध्वज चक्रध्वज सिंघा की शाही घुड़साल के अधीक्षक, रणनैतिक रूप से महत्वपूर्ण सिमुलगढ़ किले के प्रमुख और शाही घुड़सवार रक्षक दल के अधीक्षक के पदों पर भी आसीन रहे थे। राजा चक्रध्वज ने गुवाहाटी के शासक मुग़लों के विरुद्ध अभियान में सेना का नेतृत्व करने के लिए लाचित का बोरफुकन के रूप में चयन किया।
अहोम और मुगल संघर्ष
असम जनवरी 1662 से लगातार इस्लामी आक्रमण का सामना कर रहा था। औरंगजेब के मामा, बंगाल के राज्यपाल और मुगल जनरल मीर जुमला द्वितीय जिसे नवाब मुअज्जम खान के नाम से भी जाना जाता है, ने अहोम की राजधानी गरगांव पर आक्रमण किया। इस आक्रमण के बाद अहोम साम्राज्य का एक हिस्सा मुगलों के नियंत्रण में आ गया जो अहोम साम्राज्य के आधिपत्य के लिए एक चुनौती थी । लेकिन मीर जुमला द्वितीय अहोम राजा जयध्वज सिंघा पर निर्णायक जीत नहीं प्राप्त कर सका क्योंकि राजा पहाड़ी से पीछे छिप गया और वहाँ से गुरिल्ला युद्ध जारी रखा। उनके उत्तराधिकारी चक्रध्वज ने अहोम सेना का कायाकल्प कर दिया और 1667 में लाचित बोरफुकन को अहोम सेना का प्रमुख बनाया।
लाचित का मुगलों पर पहला आक्रमण
अगस्त 1667 में, अहोम सेना के नए सेनापति लाचित बोरफुकन, अतन बुरगोहेन के साथ, मुगलों से गुवाहाटी को वापस लेने के लिए आगे बढ़े। लाचित ने कलियाबोर को अपना मुख्यालय बनाया और सितंबर 1667 में बहबरी को फिर से वापस ले लिया गया। उसने गुवाहाटी और कपिली नदी के बीच के पूरे क्षेत्र को फिर से जीत लिया। इसके बाद गुवाहाटी पर नदी किनारे से हमला किया गया। शाह बुरुज़ और रंगमहल किले पर कब्जा कर लिया गया था। 1667 के नवंबर की शुरुआत में, लाचित ने मध्यरात्रि के एक साहसी हमले में इटागुली पर नियंत्रण कर लिया। अधिकांश मुगल रक्षकों की हत्या कर दी गई। अहोमों ने गुवाहाटी के मुगल फौजदार फिरोज खान को बंदी बना लिया। नदी के किनारे का शानदार ढंग से उपयोग करते हुए, लाचित ने उमानंद और बरहट से मुगलों को भगा दिया। अहोम राजा चक्रध्वज सिंघा ने लाचित को सोने की परत वाली तलवार ‘हेंगडांग’ भेंट की।
1667 में अहोम राजाओं से मिली करारी हार के बाद मुगल बुरी तरह से तिलमिला गए। जिसके कुछ समय बाद ही मुगल शासक औरंगजेब ने राजपूत राजा राम सिंह के नेतृत्व में विशाल मुगल सेना को अहोम राजवंश पर जीत के लिए रवाना कर दिया। 1669-70 में मुगल सेना और अहोम राजाओं के बीच कई लड़ाईयां लड़ी गईं, जिनका कोई ठोस परिणाम नहीं निकल सका।
सरायघाट की लड़ाई
इसके बाद 1671 में सरायघाट इलाके में ब्रह्मपुत्र नदी में अहोम सेना और मुगलों के बीच ऐतिहासिक युद्ध हुआ । यह युद्ध सामरिक इतिहास के महत्वपूर्ण युद्धों में गिना जाता है जिसने पानी में लड़ाई की तकनीक को नए आयाम दिए।
मुग़ल सेना में 30,000 पैदल सैनिक, 15,000 तीरंदाज़, 18,000 तुर्की घुड़सवार, 5,000 बंदूकची और 1,000 से अधिक तोपों के अलावा नौकाओं का विशाल बेड़ा था.
मुगल बेड़े के चार भाग थे। पहले भाग की कमान राजाराम सिंह ने ब्रह्मपुत्र के उत्तरी तट पर संभाल रखी थी । दूसरे की कमान दक्षिणी तट पर अली अकबर खान ने संभाली थी। सिंधुरिघोपा में तीसरी कमान का नेतृत्व जहीर बेग ने कर रहा था जो कोच बिहार के सैनिकों द्वारा समर्थित था। मुगल नौसेना कमांडर मुनव्वर खान ब्रह्मपुत्र तट की रखवाली कर रहे थे। अहोमों को जयंतिया, गारो, नागा और दरांग के सैनिकों का समर्थन प्राप्त था। लेकिन उनका सबसे बड़ा मित्र ब्रह्मपुत्र के मैदान का कुख्यात मानसून था। अतन बुरगोहेन ब्रह्मपुत्र के उत्तरी तट पर थे और लाचित ने स्वयं दक्षिण तट पर अहोम सेना की कमान संभाली थी। अतान ने नियमित रूप से मुगल सेना को दुस्साहसी गुरिल्ला युद्ध से परेशान किया। हालाँकि, अहोमों को अल्बोई में एक बड़ा झटका लगा, जब मुगल सेना द्वारा लगभग दस हजार अहोम सैनिकों का नरसंहार किया गया। साथ ही राजा राम सिंह ने अहोम राजा चक्रध्वज सिंघा के मन में लाचित के खिलाफ झूठा प्रचार करके संदेह पैदा करने का प्रयास किया। अहोम सेना का मनोबल टूट गया और वह पीछे हटने लगी। मुग़ल सेना अहोम मुख्यालय अंधेरूबली के बहुत समीप पहुँच गई। अहोम सैनिक काजली के पीछे हट गए।
कहा जाता है कि लड़ाई के पहले चरण में मुग़ल सेनापति राजा राम सिंह, लाचित की सेना के विरुद्ध सफलता पाने में सफल रहा। यह भी कहा जाता है कि राम सिंह के एक पत्र के साथ ‘अहोम शिविर’ की ओर एक तीर छोड़ा गया था, जिसमें लिखा था कि लाचित को एक लाख रूपये दिये गये थे और इसलिए उसे गुवाहाटी छोड़कर चला गया होगा। जब यह पत्र अहोम राजा चक्रध्वज सिंघा के पास पहुंचा तो राजा को लाचित की निष्ठा और देशभक्ति पर संदेह होने लगा था, लेकिन उनके प्रधानमंत्री अतन बुरगोहेन ने राजा को समझाया कि यह लाचित के विरुद्ध एक षड्यन्त्र है।
कहा जाता है कि सरायघाट की लड़ाई से पहले अहोम सेना के सेनापति लाचित बोरफुकन बीमार हो गए और युद्ध में भाग नहीं ले पाए। जैसे ही युद्ध शुरु हुआ, अहोम सेना मुगल सेना से हारने लगी। इसकी सूचना मिलते ही लाचित बीमार होते हुए भी लड़ाई में सम्मिलित हुए और अपने अद्भुत नेतृत्व क्षमता के दम पर सरायघाट की लड़ाई में करीब 4000 मुगल सैनिकों को मार गिराया और उनके कई जहाजों को नष्ट कर दिया। सरायघाट की लड़ाई में भयानक हार के बाद मुगल पीछे हट गए और फिर कभी भी असम पर आक्रमण के लिए साहस न जुटा सके।
मुगल-अहोम संघर्ष तथा लाचित बोरफुकन के नेतृत्व में अहोमो के मुगलों पर शौर्यपूर्ण विजय के बीच एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि लाचित बोरफुकन और हिंदवी स्वराज के संस्थापक शिवाजी न केवल समकालीन थे बल्कि दोनों योद्धाओं से पराजय का मुंह देखने वाले मुगल सेनापति भी वही थे। लड़ाई के समय मुग़ल साम्राज्य का तत्कालीन बंगाल का गवर्नर शाइस्ता खान वही मुग़ल सेनापति था जिस पर शिवा जी ने पुणे में हमला करके उसकी तीन उंगली तोड़ डाली थी और उसके बाद औरंगजेब ने उसका स्थानांतरण बंगाल कर दिया था। लाचित ने जिस मुग़ल सेनापति को धूल चटाई थी, वह औरंगजेब का वही सेनापति था, जिसकी निगरानी को चकमा देकर शिवा जी औरंगजेब की कैद से भाग निकले थे।
सरायघाट की विजय के लगभग एक वर्ष बाद प्राकृतिक कारणों से लाचित बोरफुकन की मृत्यु हो गई। उनका स्मृति में जोरहाट से 16 किमी दूर हूलुंगपारा में स्वर्गदेव उदयादित्य चक्रध्वज सिंघा द्वारा सन 1672 में एक स्मारक का निर्माण किया गया।