नई दिल्ली, 12 अक्टूबर। सुप्रीम कोर्ट ने 2002 के गोधरा दंगों के दौरान बिलकिस बानो के साथ सामूहिक बलात्कार करने और उसके परिवार के सदस्यों की हत्या करने वाले दोषियों की रिहाई के खिलाफ दायर याचिकाओं पर बुधवार को आदेश सुरक्षित रख लिया।
सजा कम करने से संबंधित मूल रिकॉर्ड 16 अक्टूबर तक जमा करने का निर्देश
न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां की पीठ ने आज गुजरात सरकार द्वारा 11 दोषियों की जल्द रिहाई के खिलाफ बिलकिस बानो सहित याचिकाकर्ताओं की ओर से जवाबी दलीलें सुनीं और आदेश सुरक्षित रख लिया। पीठ ने इसके साथ ही केंद्र गुजरात सरकारों को दोषियों की सजा कम करने से संबंधित मूल रिकॉर्ड 16 अक्टूबर तक जमा करने का निर्देश दिया है।
वकील शोभा गुप्ता ने रखा बिलकिस बानो का पक्ष
बिलकिस बानो की ओर से पेश वकील शोभा गुप्ता ने इस बात पर जोर दिया कि तीन महत्वपूर्ण कारकों (अपराध की प्रकृति, बड़े पैमाने पर समाज पर प्रभाव और पूर्ववर्ती मूल्य) को छूट के आदेश पारित करते समय ध्यान में नहीं रखा गया। इस पर पीठ ने कहा कि उसे दोनों पक्षों में संतुलन बनाना होगा क्योंकि दोषियों का तर्क है कि उन्हें सुधार और समाज में फिर से शामिल होने का मौका दिया जाना चाहिए। आप कह रहे हैं कि छूट बिल्कुल नहीं दी जानी चाहिए। उन्होंने यह कहते हुए निर्णय भी दिया है कि छूट सुधार, पुनर्एकीकरण आदि के उद्देश्य से है।
बिना दिमाग लगाए पारित कर दिए गए रिहाई के आदेश
शोभा गुप्ता ने दावा किया कि शीघ्र रिहाई के आदेश बिना दिमाग लगाए या अपराध की गंभीरता का जिक्र किए बिना पारित कर दिए गए। उन्होंने अदालत से कहा, ‘यह बंदूक की गोली से चोट का मामला नहीं है। पत्थरों से सिर फोड़े गए। आठ नाबालिग मारे गए, जिनमें बिलकिस बानो का पहला बच्चा भी शामिल था। उसे पत्थर से कुचला गया था। इस प्रकार की धमकी, स्थूलता, क्रूरता, बर्बरता एक गर्भवती महिला के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया, उसकी मां के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया।’
इससे पहले, दोषियों ने शीर्ष अदालत के समक्ष दलील दी थी कि उन्हें शीघ्र रिहाई देने वाले माफी आदेशों में न्यायिक आदेश का सार होता है और इसे संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत रिट याचिका दायर करके चुनौती नहीं दी जा सकती है।
वहीं केंद्र, गुजरात सरकार और दोषियों ने सजा में छूट के आदेशों के खिलाफ सीपीआई-एम नेता सुभाषिनी अली, तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा, नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वुमेन, अस्मा शफीक शेख और अन्य द्वारा दायर जनहित याचिकाओं (पीआईएल) का विरोध किया है। उनका तर्क है कि एक बार जब पीड़िता स्वयं अदालत का दरवाजा खटखटाती है तो दूसरों को आपराधिक मामले में हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।
गौरतलब है कि मामले में दोषी ठहराए गए 11 लोगों को पिछले वर्ष 15 अगस्त को रिहा कर दिया गया था, जब गुजरात सरकार ने अपनी छूट नीति के तहत उनकी रिहाई की अनुमति दी थी। दोषियों ने जेल में 15 साल पूरे कर लिए थे।