नई दिल्ली, 13 सितम्बर। उच्चतम न्यायालय ने बुधवार को गृह मंत्रालय को निर्देश दिया कि वह आपराधिक मामलों में पुलिस कर्मियों की मीडिया ब्रीफिंग को लेकर तीन महीने में विस्तृत नियमावली तैयार करे क्योंकि मीडिया ट्रायल न्याय के रास्ते से भटका सकता है।
शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि इस बारे में एक मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) की तत्काल आवश्यकता है कि पत्रकारों को कैसे जानकारी दी जानी चाहिए क्योंकि 2010 में गृह मंत्रालय (एमएचए) द्वारा इस विषय पर पिछली बार दिशानिर्देश जारी किए जाने के बाद से प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया में आपराधिक घटनाओं पर रिपोर्टिंग बढ़ी है।
शीर्ष अदालत की टिप्पणी – मीडिया को संतुलन बनाकर चलना होगा
प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि मीडिया के बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार और आरोपित के निष्पक्ष जांच के अधिकार तथा पीड़ित की निजता के बीच संतुलन बनाए रखना होगा। पीठ ने सभी राज्यों के पुलिस महानिदेशकों (डीजीपी) को आपराधिक मामलों में पुलिस की मीडिया ब्रीफिंग के लिए नियमावली तैयार करने के संबंध में एक महीने में गृह मंत्रालय को सुझाव देने का निर्देश दिया।
न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की सदस्यता वाली पीठ ने कहा, ‘सभी डीजीपी दिशा-निर्देशों के लिए अपने सुझाव एक महीने में गृह मंत्रालय को दें…राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) के सुझाव भी लिए जा सकते हैं।’
मीडिया ट्रायल न्याय को रास्ते से भटका सकता है
उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जब जांच जारी हो तो पुलिस द्वारा ‘समय से पहले’ किया गया कोई भी खुलासा मीडिया ट्रायल को बढ़ावा देता है, जो न्याय के रास्ते से भटका सकता है क्योंकि यह सुनवाई करने वाले न्यायाधीश को भी प्रभावित कर सकता है।
शीर्ष अदालत ने कहा कि एसओपी न होने की स्थिति में पुलिस के खुलासे की प्रकृति एक समान नहीं हो सकती क्योंकि यह अपराध की प्रकृति और पीड़ितों, गवाहों व आरोपियों समेत अलग-अलग हितधारकों पर निर्भर करती है। पीठ ने कहा कि आरोपित और पीड़ित से जुड़े ऐसे प्रतिस्पर्धी पहलू हैं, जिन पर विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि उनका अत्यधिक महत्व है।
दरअसल, सुप्रीम कोर्ट उन मामलों में मीडिया ब्रीफिंग में पुलिस द्वारा अपनाए जाने वाले तौर-तरीकों के संबंध में एक याचिका पर सुनवाई कर रहा था, जिनकी जांच जारी है। इस मामले में अदालत की मदद के लिए न्याय मित्र नियुक्त किए गए वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल शंकरनारायणन ने कहा कि प्रेस को रिपोर्टिंग से रोका नहीं जा सकता, लेकिन सूचना के स्रोत को, जो अक्सर सरकारी संस्थाएं होती हैं, विनियमित किया जा सकता है।
गोपाल शंकरनारायणन ने 2008 के आरुषि तलवार हत्याकांड का हवाला दिया, जिसमें कई पुलिस अधिकारियों ने मीडिया के सामने घटना के संबंध में अलग-अलग बयान दिए थे। 13 वर्षीया आरुषि तलवार और एक बुजुर्ग घरेलू सहायक हेमराज की नोएडा के एक घर में हत्या कर दी गई थी और इस वारदात में आरुषि के माता-पिता पर संदेह किया गया था।