प्रयागराज, 3 अक्टूबर। यूपी विधानसभा और विधान परिषद की भर्तियों में कथित घोटाले में राज्य सरकार को झटका लगा, जब इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने भर्तियों की प्रारम्भिक जांच सीबीआई से कराने का अपना आदेश वापस लेने से इनकार कर दिया। न्यायालय ने विधान परिषद की ओर से दाखिल की गई पुनर्विचार याचिका भी खारिज कर दी।
विधान परिषद की ओर से दाखिल पुनर्विचार याचिका भी खारिज
बेंच का कहना था कि याचिका में ऐसा कोई आधार नहीं है, जिस कारण आदेश वापस लिया जाए। वहीं सुनवाई के दौरान सीबीआई की ओर से न्यायालय को जानकारी दी गई है कि उसने मामले की प्रारम्भिक जांच के लिए 22 सितम्बर को ही केस दर्ज कर लिया है। कोर्ट ने 18 सितम्बर को सीबीआई जांच का आदेश दिया था।
स्टाफ की हुई पिछली नियुक्तियों में भारी अनियमितता के आरोप
न्यायमूर्ति एआर मसूदी और न्यायमूर्ति ओम प्रकाश शुक्ल की खंडपीठ ने विधान परिषद की ओर से दाखिल पुनर्विचार याचिका पर यह आदेश पारित किया। विधान परिषद की ओर से उक्त याचिका के जरिए 18 सितम्बर के उस आदेश को वापस लेने की मांग की गई थी, जिसमें न्यायालय ने प्रथम दृष्टया यह पाते हुए कि विधानसभा और विधान परिषद में तमाम स्टाफ की हुई पिछली नियुक्तियों में भारी अनियमितता बरती गई थी और 2019 में भर्ती की प्रकिया के नियम बदले गए और यूपी पब्लिक सर्विस कमीशन व यूपी सबॉर्डिनेट सर्विसेज सलेक्शन कमीशन के होते हुए भी नई एजेंसी की पहचान कर उससे भर्ती प्रकिया कराई गई।
नियमों में बदलाव कर बाहरी एजेंसी से भर्ती प्रकिया पूरी कराई गई
न्यायालय ने कहा था कि जिस प्रकार एक बाहरी एजेंसी को चुना गया और उससे भर्ती प्रकिया कराई गई, वह संदेह पैदा करता है और इस वजह से सीबीआई से प्रारम्भिक जांच कराना आवश्यक है। विधान परिषद की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता जेएन माथुर ने दलील दी कि यदि विधान परिषद को सुनवाई का पर्याप्त अवसर दिया गया होता तो वह कोर्ट के समक्ष सभी दस्तावेज रख सकते थे, जिससे मामले में सीबीआई को न लाना पड़ता।
जेएन माथुर ने दलील दी कि इस मामले में सीबीआई जांच की आवश्यकता नहीं है कि क्योंकि यदि भर्तियों में कोई अवैधानिकता या अनियमितता हुई है तो उसके विषय में न्यायालय स्वयं ही बेहतर सुनवाई कर सकता है। राज्य सरकार की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता संदीप दीक्षित का कहना था कि बेहतर हो, इस मामले की जांच के लिए हाई कोर्ट के किसी रिटायर्ड जज की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन कर दिया जाए। न्यायालय ने विस्तृत सुनवाई के पश्चात कहा कि विधान परिषद ने ऐसा कोई आधार नहीं पेश किया है, जिससे कहा जा सके कि 18 सितम्बर के आदेश में प्रक्ष्यक्षतः कोई गलती हो।