अहमदाबाद, 9 जून। आज बंदा सिंह बहादुर का बलिदान दिवस है। जब तक बंदा का नाम रहेगा, हिन्दुओं में शत्रुबोध जीवित रहेगा। हत्या से पूर्व उन्हें ‘इस्लाम’ कबूलने को कहा गया किन्तु बंदा ने मृत्यु को चुना।
मुसलमानों ने बंदा सिंह बहादुर के 4 साल के बेटे अजय सिंह को उनकी आंखों के सामने ही टुकड़ों-टुकड़ों में काटा डाला और उसका दिल निकाल कर पिता बंदा सिंह बहादुर के मुंह में ठूंस दिया, तब भी बंदा स्थिर रहे।
फिर बंदा के दाएं पैर को काट कर अलग कर दिया। उसके बाद उनके दोनों हाथों को काट कर उनके शरीर से अलग कर दिया। उनकी आंखें निकाल ली गईं, फिर चमड़ी उधेड़ी गई, फिर एक-एक कर शरीर के दूसरे अंग काटे गए और अंत में शीश काट दिया।
बंदा के लिए बहुत सरल था इस्लाम कबूल कर जीवित बच जाना, लेकिन वह धर्म और गुलामी में भेद जानते थे। वे जानते थे कि मुसलमान सत्ता के लिए नहीं लड़ रहे। हिन्दुओं को इसी सत्य का बोध कराने के लिए उन्होंने ने ‘इस्लाम’ की गुलामी के आगे सहर्ष हिन्दू-मृत्यु को स्वीकार किया।
क्या आज के हिन्दू समाज में इतना आत्मबल है कि उस सत्य के लिए लड़ सके, जी सके, मर सके, जिसके लिए बंदा ने अपना और अपने 4 साल के बेटे का बलिदान दिया था?