1857 में जहां एक ओर स्वतंत्रता के दीवाने सिर हाथ पर लिए घूम रहे थे, वहीं कुछ लोग अंग्रेजों की चमचागीरी और भारत माता से गद्दारी को ही अपना धर्म मानते थे। कोटा (राजस्थान) के शासक महाराव अंग्रेजों के समर्थक थे। पूरे देश में क्रांति की चिनगारियां 10 मई के बाद फैल गई थीं, लेकिन कोटा में यह आग अक्तूबर में भड़की।
महाराव ने एक ओर तो देशप्रेमियों को बहकाया कि वे स्वयं कोटा से अंग्रेजों को भगा देंगे, तो दूसरी ओर नीमच छावनी में मेजर बर्टन को समाचार भेज कर सेना बुलवा ली। अंग्रेजों के आने का समाचार जब कोटा के सैनिकों को मिला, तो वे भड़क उठे। उन्होंने एक गुप्त बैठक की और विद्रोह के लिए लाला हरदयाल को सेनापति घोषित कर दिया।
लाला हरदयाल महाराव की सेना में अधिकारी थे, जबकि उनके बड़े भाई लाला जयदयाल दरबार में वकील थे। जब देशभक्त सैनिकों की तैयारी पूरी हो गयी, तो उन्होंने अविलम्ब संघर्ष प्रारम्भ कर दिया। 16 अक्तूबर को कोटा पर क्रांतिवीरों का कब्जा हो गया। लाला हरदयाल गम्भीर रूप से घायल हुए। महाराव को गिरफ्तार कर लिया गया और मेजर बर्टन के दो बेटे मारे गये। महाराव ने फिर चाल चली और सैनिकों को विश्वास दिलाया कि वे सदा उनके साथ रहेंगे। इसी के साथ उन्होंने मेजर बर्टन और अन्य अंग्रेज परिवारों को भी सुरक्षित नीमच छावनी भिजवा दिया।
छह माह तक कोटा में लाला जयदयाल ने सत्ता का संचालन भली प्रकार किया, लेकिन महाराव भी चुप नहीं थे। उन्होंने कुछ सैनिकों को अपनी ओर मिला लिया, जिनमें लाला जयदयाल का रिश्तेदार वीरभान भी था। निकट सम्बन्धी होने के कारण जयदयाल जी उस पर बहुत विश्वास करते थे।
इसी बीच महाराव के निमन्त्रण पर मार्च 1858 में अंग्रेज सैनिकों ने कोटा को घेर लिया। देशभक्त सेना का नेतृत्व लाला जयदयाल, तो अंग्रेज सेना का नेतृत्व जनरल राबर्टसन के हाथ में था। इस संघर्ष में लाला हरदयाल को वीरगति प्राप्त हुई। बाहर से अंग्रेज तो अन्दर से महाराव के भाड़े के सैनिक तोड़फोड़ कर रहे थे। जब लाला जयदयाल को लगा कि अब बाजी हाथ से निकल रही है, तो वे अपने विश्वस्त सैनिकों के साथ कालपी आ गये।
तब तक सम्पूर्ण देश में 1857 की क्रांति का नक्शा बदल चुका था। अनुशासनहीनता और अति उत्साह के कारण योजना समय से पहले फूट गयी और अंततः विफल हो गई। लाला जयदयाल अपने सैनिकों के साथ बीकानेर आ गये। यहां उन्होंने सबको विदा कर दिया और स्वयं संन्यासी होकर जीने का निर्णय लिया।
देशद्रोही वीरभान इस समय भी उनके साथ लगा हुआ था। उसके व्यवहार से कभी लाला जी को शंका नहीं हुई। अंग्रेजों ने उन्हें पकड़वाने वाले को दस हजार रुपये ईनाम की घोषणा कर रखी थी।
वीरभान हर सूचना महाराव तक पहुंचा रहा था। उसने लाला जी को जयपुर चलने का सुझाव दिया। 15 अप्रैल, 1858 को जब लाला जी बैराठ गाँव में थे, तो उन्हें पकड़ लिया गया। अदालत में उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया और फिर 14 सितम्बर, 1858 को उन्हें कोटा के रिजेन्सी हाउस में फांसी दे दी गई।
इस प्रकार मातृभूमि की बलिवेदी पर दोनों भाइयों ने अपने शीश अर्पित कर दिए। गद्दार वीरभान को शासन ने दस हजार रुपये के साथ कोटा रियासत के अंदर एक जागीर भी दी।