नई दिल्ली, 26 जुलाई। लोकसभा में प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस ने बुधवार को नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया। मोदी सरकार के विगत नौ वर्षों के कार्यकाल में यह दूसरा अवसर होगा, जब यह उसे अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ रहा है।
अविश्वास प्रस्ताव का भविष्य पहले से तय, विपक्ष के पास 150 से भी कम सदस्य
इससे पहले, जुलाई, 2018 में मोदी सरकार के खिलाफ कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष की ओर से अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था। हालांकि उस अविश्वास प्रस्ताव के समर्थन में सिर्फ 126 वोट पड़े थे जबकि इसके खिलाफ 325 सांसदों ने मत दिया था। इस बार भी अविश्वास प्रस्ताव का भविष्य पहले से तय है क्योंकि संख्याबल स्पष्ट रूप से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पक्ष में है और निचले सदन में विपक्षी समूह के 150 से कम सदस्य हैं।
सरकार को सिर्फ मणिपुर मुद्दे पर घेरना चाहते हैं विपक्षी दल
फिलहाल विपक्षी दलों की दलील है कि वे चर्चा के दौरान मणिपुर मुद्दे पर सरकार को घेरते हुए धारणा से जुड़ी लड़ाई में सरकार को मात देने में सफल रहेंगे। संविधान में अविश्वास प्रस्ताव का उल्लेख अनुच्छेद 75 में किया गया है। इसके मुताबिक, यदि सत्तापक्ष इस प्रस्ताव पर हुए मतदान में हार जाता है तो प्रधानमंत्री समेत पूरे मंत्रिपरिषद को इस्तीफा देना होता है। सदस्य नियम 184 के तहत लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पेश करते हैं और सदन की मंजूरी के बाद इस पर चर्चा और मतदान होता है।
पूर्व में कई प्रधानमंत्रियों को अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा है
भारतीय संसदीय इतिहास में अविश्वास प्रस्ताव लाने का सिलसिला देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के समय ही शुरू हो गया था। पं. नेहरू के खिलाफ 1963 में आचार्य कृपलानी अविश्वास प्रस्ताव लेकर आए थे। इस प्रस्ताव के पक्ष में केवल 62 मत पड़े थे जबकि विरोध में 347 मत आए थे। इसके बाद लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, पी वी नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह समेत कई प्रधानमंत्रियों को अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा था।