Site icon hindi.revoi.in

गुजरात विधानसभा चुनाव – २०२२ : “आप” यहां आए किसलिए?

Social Share

वैसे देखा जाए तो गुजरात विधानसभा के चुनाव को अभी काफी महीने बाकी है किंतु जिस प्रकार से पिछले कुछ दिनों राजनीतिक सुगबुगाहट बढी है उसने सब का ध्यान फिर से गुजरात की ओर खींचा है। पिछले ढाई दशक से भी ज्यादा समय से गुजरात में सत्तारूढ़ भाजपा आज अपनी लोकप्रियता की चरम सीमा पर है और उसकी अंतिम परीक्षा अभी-अभी नगर पालिकाओं, महानगर पालिकाओं और उपचुनाव में उसने दे दी है, इन चुनावों में सफलता पाकर उसने साबित कर दिया है कि गुजरात में अभी भी ‘चप्पा चप्पा भाजपा’ ही है। किंतु यह तो राजनीति है, बात इतनी सरल होती तो कोई प्रश्न ही नहीं था, भाजपा का गढ़ यहां मजबूत होने के बावजूद कुछ ऐसी गतिविधियां है जो उसे राजनीतिक चुनौतियो के संकेत दे रही है। राजनैतिक गलियारों में अब कयास लगाए जा रहे हैं कि शायद अगले साल का चुनाव यहां तीन पार्टियों के बीच में होगा। भाजपा, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी “आप”। वैसे तो राजनीति संभावनाओं का खेल है किंतु गुजरात में इतने सालों में कभी तीसरी पार्टी वाली या तीसरे मोर्चे वाली राजनीति चली नहीं है। थोड़ा समय अगर उसमें उफान आया भी है तो गर्म दूध की तरह उसका झाग फौरन बैठ भी गया है। गुजरात की राजनीति की यह विशिष्टता है जो उसे ना सिर्फ पश्चिम भारत में बल्कि पूरे देश में एक अलग स्थान देती है, और आज प्रधानमंत्री भी इसी राज्य ने दिए हैं यह उसका कुछ हद तक प्रमाण भी है।

गुजरात में आमने-सामने की राजनीतिक लड़ाई का यह प्रकार क्यों ज्यादा लोकप्रिय है इसे समझने के लिए हमें थोड़ा उसके राजनीतिक इतिहास की ओर जाना होगा। महाराष्ट्र से अलग होने के बाद गुजरात में करीब करीब ढाई दशक तक कांग्रेस का शासन रहा पर उसमें भी स्थिरता की हमेशा कमी रही। नेताओं की महत्वाकांक्षाओं ने गुजरात कांग्रेस को हमेशा दिल्ली की ओर मुंह करके रहने वाले नेताओं की टोली बनाकर रख दिया। ५ साल में चार चार मुख्यमंत्री बदले गए हो ऐसा समय भी जनता ने देखा। कांग्रेस से ही अलग होकर अपनी महत्वाकांक्षाओं को आगे बढ़ाने वाले स्व चिमनभाई पटेल ने इस सिस्टम का फायदा उठाया। “किमलोप” की स्थापना, सत्ता आरोहण, दिल्ली हाई कमांड के साथ झगड़ा, सत्ता से निष्कासन, पुनः भाजपा के साथ मिल कर सत्ता आरोहण यह सब खेल गुजरात की जनता ने उनके शासन में देखें। १९९० के दशक में केशुभाई पटेल के नेतृत्व में भाजपा की पहली सरकार बनी तब से आज तक राजनीतिक स्थिरता बनी हुई है। ऐसा नहीं था कि भाजपा में कोई समस्या नहीं थी, २००१ के भूकंप के बाद “गुजरात की स्थितियां संभालने में केशुभाई असमर्थ हैं” इसी बात के तहत नरेंद्र मोदी को गुजरात में सत्ता पर लाया गया और उन्होंने भाजपा के राज्य से उखड़ते हुए पैरों को मजबूत किया, सिर्फ मजबूत ही नहीं किया बल्कि उसे लोगों के दिलों दिमाग में जगह दे दी। सिर्फ इतना ही नहीं अपनी राजनीतिक सूझबूझ की वजह से हमेशा कलह और फूट में रचे बसे रहते कांग्रेस के नेताओं को भी उसी में व्यस्त रखा, जहां जरूरत पड़ी वहां राजनीति की “आग में पेट्रोल” भी डाला ताकि कांग्रेसी नेतागण उसे बुझाने और जलाने में हमेशा व्यस्त रहें। वैसे गुजरात ने नरेंद्र भाई के सामने बगावत की लड़ाई भी देखी। उन्हीं के राजनीतिक गुरु केशुभाई पटेल ने अपनी खुद की राजनीतिक पार्टी बनाई और २०१२ के चुनावो में नरेंद्र भाई को चैलेंज दिया, पर वो मात खा गए, गुजरात में उनके अलावा बाकी सभी प्रत्याशियों की डिपाजिट भी जप्त हो गई, यह गुजरात के राजनीतिज्ञों के लिए साफ संदेश था की सिर्फ अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा आपको सत्ता नहीं दिलाएगी। हालांकि इससे पहले यह दुस्साहस केशुभाई के ही पुराने साथी शंकर सिंह वाघेला भी कर चुके थे। राजपा की स्थापना करके थोड़े दिनों के लिए भाजपा का स्थान तो उन्होंने ले लिया पर कांग्रेस ने बेक सीट ड्राइविंग में उनकी गाड़ी को ऐसे पलटा कि अभी तक उसकी मार से वह उबरे नहीं है।

खैर, राजनीति में आना जाना तो आम बात है पर वह पार्टी ही आम आदमी पार्टी हो तो उसका असर कुछ अलग होता है। अगर “आप” की बात करें तो २०१७ में उसने गुजरात में आकर हंगामा मचाने की जो कोशिश की थी वह चली नहीं। केजरीवाल उस वक्त दिल्ली की राजनीति में उभर चुके थे। गुजरात में उनकी भ्रष्टाचार विहीन शासन की अन्ना केजरीवाल फार्मूला से प्रभावित लोगों ने उन्हें बुलाया, “आप” गुजरात का गठन भी हुआ पर गुजरात की जनता ने फिर एक बार कांग्रेस और भाजपा के अलावा किसी और राजनीतिक दल को मानने या समझने से इंकार कर दिया और उनके प्रत्याशियों ने अपनी डिपॉजिट गवाई। बाद में गुजरात में “आप” की यह गत हुई कि उसे अपना संगठन ही समेट लेना पड़ा। किंतु अभी हुए महापालिका के चुनाव में उसने सिर्फ सूरत महानगर पालिका में कुछ बैठके क्या हासिल कर ली हंगामा ऐसा मचाया गया मानो उसका प्रदेश अध्यक्ष अगला मुख्यमंत्री बनेगा। वास्तव में यह “आप” के सोशल मीडिया और “मीडिया मैनेजमेंट” का ही एक नतीजा है जिसने फिर से केजरीवाल को गुजरात के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया है। “आप” के लिए समस्या यह है कि अगले साल के चुनाव को ध्यान में रखते हुए उनकी पार्टी का संगठन अभी ग्रासरूट तक पहुंचा नहीं है और उसमें जुड़ने वाले लोग भी किसी न किसी राजनीतिक दल से नाराज या बिछड़े हुए कार्यकर्ता या नेता है जो इस पार्टी की तथाकथित तौर पर उभरती लोकप्रियता को भुनाना चाहते हैं। ऐसे में उनके लिए राहत की बात यह है कि एक निजी न्यूज़ चैनल के प्राइम टाइम एंकर इशूदान गढवी ने अपनी लोकप्रियता को भुनाने के लिए अब पत्रकारिता छोड़ “आप” का दामन थाम लिया है, जिन्हें केजरीवाल ने गुजरात में आकर “गुजरात का केजरीवाल” भी बता दिया। हालांकि यह सब बातें इस पार्टी को जितना मीडिया माइलेज दिलवाती है उतना उसको जमीनी तौर पर फायदा नहीं मिलता है क्योंकि  संगठन में कमीटेड कार्यकर्ताओं  और स्पष्ट राजनीतिक विचारधारा की कमी उसकी सबसे बड़ी समस्या है।

यह पार्टी गुजरात में कांग्रेस का विकल्प बनना चाहती हैं और गुजरात में ट्रायंगुलर फाइट से ज्यादा फायदा नही है इस बात को समझती भी है किंतु इतने सालों से गुजरात में अपना अस्तित्व का संघर्ष कर रही कांग्रेस का स्थान ले लेना इतना आसान नहीं है। क्योंकि गुजरात में कांग्रेस ने लंबे अरसे तक शासन किया है और उसके कार्यकर्ता (नेता नहीं) अभी भी अपनी पार्टी के लिए कम से कम चुनाव में तो अपने आपको झोक ही देते हैं। २०१७ का विधानसभा चुनाव उसका स्पष्ट प्रमाण है जब काउंटिंग के समय एक बार तो कांग्रेस भाजपा से २ सीटें आगे निकल गई थी और राजीव गांधी भवन पर पटाखे फूटने लगे थे। उन चुनावो में कांग्रेस ने पाटीदार आंदोलन से जुड़े हार्दिक पटेल और अन्य युवाओं की शक्तियों का जो चुनावी उपयोग किया उसने एक बारगी भाजपा के नेताओं को भी गहरी चिंता में डाल दिया था। पर गुजरात का इतिहास गवाह है कि यहां जैसे दो से ज्यादा दलों की चुनावी राजनीति नहीं चलती है वैसे ही जातिवाद भी लंबे समय तक नहीं चलता। वैसे गुजरात की समाजनीति में यह बात बहुत अंदर तक घुली हुई है। यहां कुछ हद तक जात पात की राजनीति और राज्यों की तरह ही चलती है पर जब कोई एक समुदाय राजनीति पर हावी होने की कोशिश करता है तो बाकी के समुदाय उसके खिलाफ एक हो जाते हैं इसके चलते हुए २०१७ के बाद पाटीदार आंदोलन का राजनीतिक लाभ उठाने की कांग्रेस की कोशिशें नाकामयाब हो गई। कांग्रेस के साथ सब कुछ बुरा है ऐसा भी नहीं, समस्या सिर्फ यही है कि सालों तक सत्ता में रहकर अब उसकी एक पीढ़ी सिर्फ विरोध ही कर रही है और उन्हें दूर दूर तक सत्ता के आसार नजर नहीं आ रहे। पिछले लोकसभा और विधानसभा के चुनाव के पहले गुजरात कांग्रेस के कुछ कद्दावर विधायक और नेताओं का भाजपा में चले जाना, वहां जाकर मंत्री बनना इसी बात का सबूत है। जहां कार्यकर्ताओं को मार्गदर्शन करने वाला नेता खुद पार्टी छोड़कर चला जाए वहां कार्यकर्ता क्या उम्मीद रखेगा? और तो और कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जानेवाले सभी विधायकों को भाजपा ने अपने बलबूते पर चुनकर वापस विधानसभा में भी ला दिया जिससे उनका आत्मविश्वास तो बढ़ा ही, पर जो दीवार पर बैठे थे ऐसे कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता भी कूदकर भाजपा में आ गए और अपने आप को “शुद्ध” कर लिया। हालांकि अभी गुजरात कांग्रेस में मची हुई धमाचौकड़ी की वजह से फिर से कार्यकर्ताओं के मन में पार्टी के भविष्य को लेकर प्रश्न उठने लगे है। पिछले लोकसभा और विधानसभा के वोट शेयर अगर देखें २०१७ विधानसभा चुनाव में भाजपा को ४९.४४% और कांग्रेस को ४२.९७ % वोट मिले थे। सिर्फ ७ % का फर्क होने के बावजूद कांग्रेस और सत्ता के बीच में बड़ी दूरी रह गई। २०१९ के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की अंदरूनी फूट का नतीजा दिखा, कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं की भाजपा में बड़ी मात्रा में जाने की लगी होड़ की वजह से फिर एक बार कांग्रेस को लोकसभा की एक भी सीट नहीं मिली। हालांकि भाजपा को इस चुनाव में ६३.०७ % और कांग्रेस को ३२.५ % वोट मिले थे।

कांग्रेस की यह स्थिति है तो भाजपा में भी सब कुछ ठीक है ऐसा भी नहीं। सरकार और संगठन के बीच में छोटे बड़े मुद्दों पर टकराव की बातें सामने आती रहती है किंतु इस बार चुनाव में भाजपा के लिए सबसे बड़ा प्लस पॉइंट यह है कि संगठन की ताकत को बढ़ाने के लिए नए प्रदेश अध्यक्ष सी आर पाटील काफी आक्रमक है। उन्होंने अब भाजपा को खुद के कार्यकर्ताओं के साथ आगे ले जाने की ठान ली है कांग्रेस से आने वाले नेताओं को अब यहां प्रवेश बंदी हो गई है जिसकी वजह से भाजपा के पुराने और आहत हुए कार्यकर्ताओं और नेताओं को भी राहत मिली है। कोरोना की दूसरी लहर में प्रारंभिक असावधानी के बाद गुजरात सरकार ने काफी फुर्ती दिखाई और अपनी साख बचाने में कामयाब हुई है। हालांकि अभी भी तथाकथित तीसरी लहर की चेतावनी के बाद रुपाणी-पटेल सरकार अपनी तैयारियों को लेकर आश्वस्त हैं और ज्यादा लॉकडाउन या कर्फ्यू डाले बिना दूसरी लहर को काबू में लाने का उन्हें श्रेय भी मिल रहा है।

किंतु आने वाले एक साल में ही गुजरात में कई राजनीतिक उठापटक होने वाली है यह तय है, क्योंकि कांग्रेस के सामने अब सिर्फ भाजपा ही नहीं किंतु “आप” और ओवैसी दोनों सरदर्द बने खड़े हैं। यह दोनों पार्टियां उसका वोटबैंक छीनने के लिए बेकरार हैं और ओवैसी ने तो कुछ हद तक उसमें सेंध लगा भी दी है। कांग्रेस को अपने प्रदेश यूनिट में जान फूंकनी पड़ेगी और नए, आक्रमक, युवा नेतृत्व को आगे लाना पड़ेगा वरना उसकी बची खुची जमीन भी यह पार्टियां छीन लेगी। इस तरफ भाजपा को भी लंबे समय से सत्ता में रहने की वजह से होने वाले “सत्ता के हैंगओवर” से बाहर निकलकर सरकार और संगठन के बीच तालमेल बनाए रखना होगा, अगर ऐसा हो गया तो रुपाणी- पटेल की सरकार नरेंद्रभाई के बाद गुजरात में राजनीति के नए विक्रम स्थापित करेगी और फिर एक बार २०२४ में राष्ट्रीय राजनीति में गुजरात अपना दमखम दिखाएगा।

Exit mobile version