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भारत के संविधान ने सामाजिक-आर्थिक न्याय को आगे बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभाई : CJI गवई

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नई दिल्ली, 19 जून। भारत के प्रधान न्यायाधीश (CJI) भूषण रामकृष्ण गवई ने कहा है कि पिछले 75 वर्षों में भारत के संविधान ने अपने नागरिकों के लिए सामाजिक-आर्थिक न्याय को आगे बढ़ाने में एक प्रमुख भूमिका निभाई है और इसके आलोचक गलत साबित हुए हैं।

इतालवी शहर मिलान के अपील न्यायालय में बुधवार को “रोल ऑफ कॉन्स्टिट्यूशन इन डिलिवरिंग सोशियो-इकोनॉमिक जस्टिस इन कंट्री” विषय पर एक समारोह को संबोधित करते हुए सीजेआई बीआर गवई ने कहा कि इसे अपनाने के बाद शुरुआती वर्षों में कई संवैधानिक विशेषज्ञों ने भारतीय संविधान की विश्वसनीयता और दीर्घकालिक व्यवहार्यता के बारे में संदेह व्यक्त किया था।

सीजेआई गवई ने कहा कि उनमें सर आइवर जेनिंग्स भी शामिल थे, जो उस समय के प्रमुख राष्ट्रमंडल इतिहासकार और संवैधानिक विद्वान थे, और 1951 में मद्रास विश्वविद्यालय ने उन्हें संविधान पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया था। अपने संबोधन के दौरान जेनिंग्स इसके प्रावधानों की बहुत आलोचना करते थे और अपनी टिप्पणी की शुरुआत एक प्रसिद्ध सनकी आकलन के साथ करते थे। उन्होंने भारतीय संविधान को बहुत लंबा, बहुत कठोर, बहुत विस्तृत बताया था।

पिछले 75 वर्षों के अनुभव ने सर आइवर जेनिंग्स को गलत साबित किया

सीजेआई ने कहा, ‘हालांकि, पिछले 75 वर्षों के अनुभव ने सर आइवर जेनिंग्स को गलत साबित कर दिया है। भारत के संविधान ने अपने नागरिकों के लिए सामाजिक-आर्थिक न्याय को आगे बढ़ाने में एक प्रमुख भूमिका निभाई है। वास्तव में इस लक्ष्य की ओर सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण कदम भारतीय संसद द्वारा शुरू किए गए थे।’

सिर्फ एक राजनीतिक दस्तावेज नहीं बल्कि आशा की किरण

उन्होंने कहा कि 26 जनवरी, 1950 को अपनाया गया संविधान केवल शासन के लिए एक राजनीतिक दस्तावेज नहीं है बल्कि समाज के लिए एक वादा, एक क्रांतिकारी बयान और गरीबी, असमानता और सामाजिक विभाजन से पीड़ित लंबे समय के औपनिवेशिक शासन से बाहर आने वाले देश के लिए आशा की किरण है। यह एक नई शुरुआत का वादा था, जहां सामाजिक और आर्थिक न्याय हमारे देश का मुख्य लक्ष्य होगा। अपने मूल में, भारतीय संविधान सभी के लिए स्वतंत्रता और समानता के आदर्शों को कायम रखता है।

भारत का संविधान अन्य उभरते देशों के लिए एक मॉडल

सीजेआई गवई ने कहा कि भारत का संविधान अन्य उभरते देशों के लिए एक मॉडल बन गया है, जो समावेशी और भागीदारीपूर्ण शासन संरचना बनाने का प्रयास कर रहे हैं। उन्होंने जोर देकर कहा कि न्याय कोई अमूर्त आदर्श नहीं है और इसे सामाजिक संरचनाओं, अवसरों के वितरण और लोगों के रहने की स्थितियों में जड़ जमानी चाहिए।

उन्होंने कहा, ‘समाज के बड़े हिस्से को हाशिए पर रखने वाली संरचनात्मक असमानताओं को संबोधित किए बिना, कोई भी राष्ट्र वास्तव में प्रगतिशील या लोकतांत्रिक होने का दावा नहीं कर सकता। दूसरे शब्दों में, सामाजिक-आर्थिक न्याय दीर्घकालिक स्थिरता, सामाजिक सामंजस्य और सतत विकास प्राप्त करने के लिए एक व्यावहारिक आवश्यकता है।’

देश के लिए सामाजिक-आर्थिक न्याय राष्ट्रीय प्रगति का महत्वपूर्ण पहलू

सीजेआई ने कहा कि यह केवल पुनर्वितरण या कल्याण का मामला नहीं है बल्कि यह हर व्यक्ति को सम्मान के साथ जीने, अपनी पूरी मानवीय क्षमता का एहसास करने और देश के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन में समान रूप से भाग लेने में सक्षम बनाने के बारे में भी है। उन्होंने कहा, ‘इस प्रकार, किसी भी देश के लिए सामाजिक-आर्थिक न्याय राष्ट्रीय प्रगति का एक महत्वपूर्ण पहलू है।’

भारतीय संविधान की यात्रा सफलताओं की कहानी है

सीजेआई गवई इस विषय पर भाषण देने के लिए आमंत्रित करने के लिए चैंबर ऑफ इंटरनेशनल लॉयर्स को धन्यवाद देते हुए कहा कि सामाजिक-आर्थिक न्याय प्रदान करने में पिछले 75 वर्षों में भारतीय संविधान की यात्रा महान महत्वाकांक्षा और महत्वपूर्ण सफलताओं की कहानी है।

उन्होंने कहा, ‘भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में मुझे यह कहते हुए गर्व हो रहा है कि भारतीय संविधान के निर्माता इसके प्रावधानों का मसौदा तैयार करते समय सामाजिक-आर्थिक न्याय की अनिवार्यता के प्रति गहराई से सचेत थे। इसका मसौदा औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता के लिए एक लंबे और कठिन संघर्ष के बाद तैयार किया गया था।’

सीजेआई ने कहा कि शिक्षा में सकारात्मक काररवाई की नीतियां संविधान की समानता और सामाजिक-आर्थिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता की ठोस अभिव्यक्ति रही हैं, जिनका उद्देश्य ऐतिहासिक अन्याय को दूर करना और अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना है।

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