नई दिल्ली, 26 फरवरी। केंद्र सरकार ने आपराधिक मामलों में दोषी ठहराए जाने वाले राजनेताओं पर आजीवन प्रतिबंध लगाने की मांग वाली याचिका का सुप्रीम कोर्ट में विरोध करते हुए कहा है कि इस तरह की अयोग्यता लागू करना पूरी तरह से संसद के अधिकार क्षेत्र में आता है।
केंद्र ने बुधवार को अदालत में दायर हलफनामे में कहा, ‘याचिका में यही मांग की गई है, जो कानून को फिर से लिखने या संसद को एक विशेष तरीके से कानून बनाने का निर्देश देने के समान है, जो न्यायिक समीक्षा की शक्तियों से पूरी तरह बाहर है। ये सवाल कि क्या आजीवन प्रतिबंध उचित होगा या नहीं, ये पूरी तरह से संसद के अधिकार क्षेत्र में है। दंड की काररवाई और जुर्माने को उचित समय अवधि तक सीमित रखने से सुधार सुनिश्चित किया जाता है जबकि बेवजह की सख्ती से बचा जाता है.’
हलफनामे में कहा गया कि दंड के प्रभाव को समय के आधार पर सीमित करने में कोई असंवैधानिक बात नहीं है और यह कानून का स्थापित सिद्धांत है कि दंड या तो समय के आधार पर या फिर परिणाम के आधार पर सीमित होता है। हलफनामे में कहा गया है, ‘यह प्रस्तुत किया गया है कि याचिकाकर्ता द्वारा उठाए गए मुद्दों के व्यापक प्रभाव हैं और वे स्पष्ट रूप से संसद की विधायी नीति के अंतर्गत आते हैं तथा इस संबंध में न्यायिक समीक्षा की रूपरेखा में उचित परिवर्तन किया जाएगा।’
अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय ने दाखिल की है याचिका
उल्लेखनीय है कि अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में देश में सांसदों और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामलों के शीघ्र निबटारे के अलावा दोषी ठहराए गए राजनेताओं पर आजीवन प्रतिबंध लगाने की मांग की गई है। वहीं केंद्र ने अपने हलफनामे में कहा कि शीर्ष अदालत ने लगातार कहा था कि एक विकल्प या दूसरे विकल्प पर विधायी विकल्प पर अदालत में सवाल नहीं उठाया जा सकता।
क्या कहती है धारा 8 और 9
केंद्र ने बताया कि धारा 8 के अनुसार किसी विशेष अपराध के लिए दोषी ठहराए गए व्यक्ति को जेल की अवधि पूरी होने के बाद छह साल तक अयोग्य घोषित किया जाता है। इसी तरह धारा 9 में यह प्रावधान है कि भ्रष्टाचार या राज्य के प्रति निष्ठाहीनता के कारण बर्खास्त किए गए लोकसेवकों को बर्खास्त करने की तारीख से पांच साल तक पात्रता से वंचित रखा जाएगा। हालांकि, याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि इस तरह की अयोग्यता को आजीवन प्रतिबंध तक बढ़ाया जाना चाहिए। अयोग्यता की अवधि संसद द्वारा प्रोपोर्शनल और रीजनेबलनेस के सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए तय की जाती है।
हलफनामे में कहा गया है, ‘संसदीय नीति के तहत आरोपित धाराओं के तहत की गई अयोग्यताएं समय तक सीमित हैं और इस मुद्दे पर याचिकाकर्ता की समझ को प्रतिस्थापित करना तथा आजीवन प्रतिबंध लगाना उचित नहीं होगा।’ केंद्र ने कहा कि विवादित प्रावधान संवैधानिक रूप से मजबूत हैं, उनमें अतिरिक्त प्रतिनिधिमंडल के दोष से ग्रस्त नहीं हैं और वह संसद के विधायी प्राधिकार के अंदर आते हैं।’
यह तो फिर से कानून बदलने जैसा है
केंद्र ने यह भी तर्क दिया कि याचिकाकर्ता द्वारा की गई मांग (अनिवार्य रूप से जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 की सभी उप-धाराओं में छह वर्ष को आजीवन में बदलना) फिर से कानून लिखने के बराबर होगा। इस तरह के रवैया न तो न्यायिक समीक्षा में मान्यता दी गई है और न ही संवैधानिक कानून के किसी भी स्थापित सिद्धांतों के साथ जुड़ा हुआ है।
सरकार ने कहा कि याचिका अयोग्यता के आधार पर अयोग्यता के प्रभावों के बीच महत्वपूर्ण अंतर स्पष्ट करने में विफल रही। हलफनामे में कहा गया कि याचिकाकर्ता का संविधान के अनुच्छेद 102 और 191 पर भरोसा पूरी तरह से गलत था। संविधान के अनुच्छेद 102 और 191 संसद, विधानसभा या विधान परिषद के किसी भी सदन की सदस्यता के लिए अयोग्यता से संबंधित हैं।
केंद्र ने कहा, ‘याचिकाकर्ता की प्रार्थना कानून को फिर से लिखने या संसद को किसी विशेष तरीके से कानून बनाने का निर्देश देने के समान है, जो न्यायिक समीक्षा की शक्तियों से पूरी तरह बाहर है। यह सामान्य कानून है कि न्यायालय संसद को कानून बनाने या किसी विशेष तरीके से कानून बनाने का निर्देश नहीं दे सकता।’

