सिख इतिहास में बाबा बुड्ढा का विशेष महत्त्व है वे पंथ के पहले गुरु नानक देव जी से लेकर छठे गुरु हरगोविन्द जी तक के उत्थान के साक्षी बने थे. बाबा बुड्ढा का जन्म अमृतसर के पास गांव कथू नंगल में अक्तूबर 1506में हुआ फिर उनका परिवारगांव रमदास में आकर बस गया. जब उनकी आयु 12-13 वर्ष की थी, तब गुरु नानक देव जी धर्म प्रचार करते हुए उनके गांव में आये । उनके तेजस्वी मुख मंडल से बालक.बाबाबुड्ढा बहुतज्यादा प्रभावित हुए। वे प्रायःघर से कुछ खाद्य सामग्री लेकर जाते और उन्हें भोजन कराते । एक बार उन्होंने पूछा कि जैसे भोजन करने से शरीर तृप्त होता है, ऐसे ही मन की तृप्ति का उपाय क्या है? मृत्यु से मुक्ति और शरीर का आवागमन बार-बार न हो, इसकी विधि क्या है ? तब- गुरुनानक देव ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा-कहा कि तुम्हारी उम्र तो अभी खाने- खेलने की है; पर बातें बुड्ढों जैसी कर रहे हो। फिर गुरुजी ने उनकी शंका का समाधान करने हेतु कुछ उपदेश दिया। तब से उस बालक ने नानक देव जी को ही अपना गुरु स्वीकार कर लिया।
उन्होंने गुरुओं की सेवा एवं आदेश पालन को ही अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया। इसके बाद से हीउनका नाम”बाबा बुड्ढा” पड़ गया। बाबा बुड्ढा के समर्पण और निष्ठा को देखते हुए गुरुनानकदेव जी नेअपने उत्तराधिकारी के रूप में जब गुरु अंगददेव का चयन किया । तो उन्हें तिलक लगाकर गुरु घोषित करने की जिम्मेदारी बाबाबुड्ढा ने ही निभाई। यह परम्परा छठे गुरुहरगोविन्द जी तक जारी रही। और फिर इतना ही नहीं, जब 01 सितम्बर 1604 को गुरु अर्जुनदेव जी ने श्री हरिमन्दिर साहिब,अमृतसर में श्रीगुरुग्रन्थ साहिब की स्थापना की, तो उसके पहले ग्रन्थी का गौरव भी बाबा बुड्ढा जी को ही प्रदान किया गया और फिर इतना महत्वपूर्ण स्थान पाने के बाद भी वे सेवा,विनम्रता और विनय शीलता की प्रतिमूर्ति बने रहे।उन्होंने घास काटने, मिट्टी ढोने या पानी भरने जैसे किसी काम को कभी छोटा नहीं समझा।और फिर जब गुरुहरगोविन्द जी को मुगल शासक जहांगीर ने गिरफ्तार कर ग्वालियर के किले में कैद कर दिया, तो सिख संगत का मनोबल बनाये रखने के लिए बाबा बुड्ढा ने एक नयी रीत परम्परा प्रारम्भ की। उनके नेतृत्व में सिख लोग समूह में गुरुवाणी का गायन करते हुए हरिमन्दिर की परिक्रमा करते तथा फिर अरदास कर वापस घर जाते थे। यह परिक्रमा रात को की जाती थी।
जब गुरु हर गोविन्द जी कैद से छूट कर आये,तो उन्हें यह बहुतअच्छा लगा,तब से यह परम्परा हरिमन्दिर साहिब में चल रही है। जब गुरुअर्जुनदेवजी को बहुत समय तक सन्तान की प्राप्ति नहीं हुई,तो उन्होंने अपनी पत्नी माता गंगादेवी को बाबा बुड्ढा से आशीर्वाद लेकर आने को कहा।तब वे तरह-तरह के स्वादिष्ट पकवान बनाकर अपने सेवकों के साथ सवारी में बैठकर बाबाजी के पास गयी।बाबा बुड्ढा ने कहा कि मैं तो गुरुओं का दास हूं। आशीर्वाद देने की क्षमता तो स्वयं गुरुजी में ही है।माता जी निराश होकर खाली हाथ वापस लौट गयीं। जब गुरु अर्जुनदेव जी को यह पता लगा,तो उन्होंने पत्नी को समझाया।अगली बार गुरुपत्नी मिस्सी रोटी, प्याज और लस्सी लेकर नंगे पांव गयीं, तो बाबा बुड्ढा ने हर्षित होकर भरपूर आशीष दिये, जिसके प्रताप से हरगोविन्द जैसा तेजस्वी बालक उनके घर में जन्मा तब से बाबा बुड्ढा के जन्मदिवस पर उनके जन्मग्राम कथू नंगल में बने गुरुद्वारे में मिस्सी रोटी,प्याज और लस्सी का लंगर ही वितरित किया जाता है.